महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 59 श्लोक 51-66

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एकोनषष्टित्तम (59) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व : एकोनषष्टित्तम अध्याय: श्लोक 51-66 का हिन्दी अनुवाद

सात अंगो से युक्त राज्य के हृास, वृद्धि और समान भाव से स्थिति, दूत के सामथ्र्य से होने वाली अपनी और अपने राष्ट्र की वृद्धि, शत्रु, मित्र और मध्यस्थों का विस्तारपूर्वक सम्यक् विवेचन, बलवान् शत्रुओं को कुचल डालने तथा उनसे टक्कर लेने की विधि आदि का उक्त ग्रंथ में वर्णन किया गया हैं। शासन सम्बधी अत्यन्त सूक्ष्म व्यवहार, कण्टक-शोधन ( राज्यकार्य में विघ्न डालने वाले को उखाड़ फेंकना ), परिश्रम, व्यायाम-योग तथा धन के त्याग और संग्रह भी उसमें प्रतिपादन किया गया हैं। जिनके भरण-पोषण का कोई उपाय न हो, उनके जीवन-निर्वाह का प्रबंध करना, जिनके भरण-पोषण की व्यवस्था राज्य की ओर से की गयी हो उनकी देखभाल करना, समय पर धन का दान करना, दुव्र्यसन में आसक्त न होना आदि विविध विषयों का उस ग्रंथ में उल्लेख हैं। राजा के गुण, सेनापति के गुण, अर्थ, धर्मं और काम के साधन तथा उनके गुण-दोष का भी उसमें निरूपण किया गया हैं। भाँति-भाँति की दुश्चेष्टा, अपने सेवकों की जीविका का विचार, सबके प्रति सशक्त रहना, प्रमाद का परित्याग करना, अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना, प्राप्त हुई वस्तु को सुरक्षित रखते हुए उसे बढ़ाना और बढ़ी हुई वस्तु का सुपात्रों को विधिपूर्वक दान देना-यह धन का पहला उपयोग हैं। धर्मं के लिये धन का त्याग उसका दूसरा उपयोग हैं, कामभोग के लिये उसका व्यय करना तीसरा और संकट-निवारण के लिये उसे खर्चं करना उसका चैथा उपयोग हैं। इन सब बातोें का उस ग्रंथ में भली-भाँति वर्णन किया गया हैं। कुरूश्रेष्ठ! क्रोध और काम से उत्पन्न होने वाले जो यहाँ दस प्रकार के भयंकर व्यसन हैं, उनका भी इस ग्रन्थ में उल्लेख हैं। भरतश्रेष्ठ! नीतिशास्त्र के आचार्यों ने जो मृगया, द्यूत, मद्यपान और स्त्रीप्रसंग-ये चार प्रकार के कामजनित व्यसन बताये हैं, उन सबका इस ग्रंथ में ब्रह्मा जी ने प्रतिपादन किया है। वाणी की कटुता, उग्रता, दण्ड़ की कठोरता, शरीर को कैद कर लेना, किसी को सदा के लिये त्याग देना और आर्थिक हानि पहुँचाना-ये छः प्रकार के क्रोधजनित व्यसन उक्त ग्रंथ में बताये गये हैं। नाना प्रकार के यन्त्रों और उनकी क्रियाओं का भी वर्णन किया गया हैं। शत्रु के राष्ट्र को कुचल देना, उसकी सेनाओं पर चोट करना और उनके निवास-स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट कर देना-इन सब बातों का भी इस ग्रंथ में उल्लेख हैं। शत्रु की राजधानी के चैत्य वृक्षों का विध्वंस करा देना, उसके निवास-स्थान और नगर पर चारों ओर से घेरा डालना आदि उपायों का तथा कृषि एवं शिल्प आदि कर्मों का उपदेश, रथ के विभिन्न अवयवों का निर्माण, ग्राम और नगर आदि में निवास करने की विधि तथा जीवन-निर्वाह के अनेक उपायों का भी उक्त ग्रंथ में वर्णन हैं। युधिष्ठिर! ढ़ोल, नगारे, शंख, भेरी आदि रणवाद्यों को बजाने, मणि, पशु, पृथ्वी, वस्त्र, दास-दासी तथा सुवर्ण-इन छः प्रकार के द्रव्यों का अपने लिये उपार्जन करने तथा शत्रुपक्ष की इन वस्तुओं का विनाश कर देने का भी इस शास्त्र में उल्लेख हैं। अपने अधिकार में आये हुए देशों में शान्ति स्थापित करना, सत्पुरूषों का सत्कार करना, विद्वानों के साथ एकता (मेल-जोल) बढ़ाना, दान और होम की विधि को जानना, मांगलिक वस्तुओं का स्पर्श करना, शरीर को वस्त्र और आभूषणों से सजाना, भोजन की व्यवस्था करना और सर्वदा आस्तिक बुद्धि रखना-इन सब बातों का भी उस ग्रन्थ में वर्णन हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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