महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 66 श्लोक 21-43

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षट्षष्टितम (66) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 21-43 का हिन्दी अनुवाद

कुरूनन्दन ! जिन प्राणियोंपर बलात्कार हुआ हो और वे शरणमें आये हों, उनका संकटसे उद्धार करनेवाला पुरूष गार्हस्थ्य-धर्मके पालनसे मिलनेवाले पुण्यफलका भागी होता है। चराचर प्राणियोंकी सब प्रकारसे रक्षा तथा उनकी यथायोग्य पूजा करनेवाले पुरूषको गार्हस्थ्य-सेवनका फल प्राप्त होता है। कुन्तीनन्दन ! बड़ी-छोटी पत्नियों, भाइयों, पुत्रों और नातियोंकी भी जो राजा अपराध करनेपर दण्ड और अच्छे कार्य करनेपर अनुग्रहरूप पुरूस्कार देता है, यही उसके द्वारा गार्हस्थ्य-धर्मका पालन है और यही उसकी तपस्या है। पुरूषसिंह ! पूजनके योग्य सुप्रसिद्ध आत्माज्ञानी साधुओंकी पूजा तथा रक्षा गृहस्थाश्रमके पुण्यफलकी प्राप्ति करानेवाली है। भरतनन्दन युधिष्ठिर ! जो किसी भी आश्रममें रहनेवाले प्राणियोंको अपने घरमें ठहराकर उनका भोजन आदिसे सत्कार करता है, उस राजाके लिये वही गार्हस्थ्य-धर्मका पालन है। जो पुरूष विधाताद्वारा विहित धर्ममें स्थित होकर यथार्थ रूपसे पालन करता है, वह सभी आश्रमोंके निर्दोंष फलको प्राप्त कर लेता है। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ! जिस पुरूषमें स्थित हुए सद्गुणोंका कभी नाश नहीं होता, उस नरश्रेष्ठको सभी आश्रमोंके पालनमें स्थित बताया गया है। युधिष्ठिर ! जो राजा स्थान, कुल और अवस्थाका मान रखते हुए कार्य करता है, वह सभी आश्रमोंमें निवास करनेका फल पाता है। कुन्तीकुमार! पुरूषसिंह ! देशधर्म और कुलधर्मका पालन करनेवाला राजा सभी आश्रमोंके पुण्यफलका भागी होता है। नरव्याघ्र नरेश ! जो समय-समयपर सम्पत्ति और उपहार देकर समस्त प्राणियोंका सम्मान करता रहता है, वह साधु पुरूषोंके आश्रममें निवासका पुण्यफल पा लेता है। कुन्तीनन्दन! जो राजा मनुप्रोक्त दस धर्मोंमें स्थित होकर भी सम्पूर्ण जगत्के धर्मपर दृष्टि रखता है, वह सभी आश्रमोंके पुण्य-फलका भागी होता है। भरतनन्दन ! जो धर्मकुशल मनुष्य लोकमें धर्मका अनुष्ठान करते हैं, वे जिस राजाके राज्यमें पालित होते हैं, उस राजाको उनके धर्मका छठा अंश प्राप्त होता है। पुरूषसिंह ! जो राजा धर्ममें ही रमण करनेवाले धर्मपरायण मानवोंकी रक्षा नहीं करते हैं, वे उनकी पाप बटोर लेते हैं। निष्पाप युधिष्ठिर ! जो लोग इस जगत्में राजाओंके सहायक होेते हैं, वे सभी उस राज्यमें दूसरोंद्वारा किये गये धर्मका अंश प्राप्त कर लेते हैं। पुरूषसिंह ! शास्त्रज्ञ विद्वान् कहते हैं कि हमलोग जिस गार्हस्थ्य-धर्मका सेवन कर रहे हैं, वह सभी आश्रमोंमें श्रेष्ठ एवं पावन है। उसके विषयमें शास्त्रोंका यह निर्णय सबको विदित है। जो मानव समस्त प्र्राणियोंके प्रति अपने समान ही भाव रखता है, दण्डका त्याग कर देता है, क्रोधकी जीत लेता है, वह इस लोकमें और मृत्युके पश्चात् परलोकमें भी सुख पाता है। राजधर्म एक नौकाके समान है। वह नौका धर्मरूपी समुद्रमें स्थित है। सत्त्वगुण ही उस नौकाका संचालन करनेवाला बल (कर्णधार) है, धर्मशास्त्र ही उसे बाँधनेवाली रस्सी है, त्यागरूपी वायुरूपी वायुका सहारा पाकर वह मार्गपर शीघ्रतापूर्वका चलती है, वह नाव ही राजाको संसारसमुद्रसे पार कर देगी। मनुष्यके हृदयमें जो-जो कामनाएँ स्थित हैं, उन सबसे ज बवह निवृत्त हो जाता है, तब उसकी विशुद्ध सत्त्वागुणमें स्थिति होता है और इसी समय उसे परब्रह्म परमात्माके स्वरूपका साक्षात्कार होता है। नरेश्वर ! पुरूषसिंह ! चित्तवृत्तियोंके निरोधरूप योगसे और समभावसे जब अन्तःकरण अत्यन्त शुद्ध एवं प्रसन्न हो जाता है, तब प्रजा पालन परायण राजा उत्तम धर्मके फलका भागी होता है। युधिष्ठिर ! तुम वेदाध्ययन में संलग्न रहनेवाले, सत्कर्मपरायण ब्राह्मणों तथा अन्य सब लोगोंके पालन-पोषणका प्रयत्न करो। भरतनन्दन ! वन में और विभिन्न आश्रमों में रहकर जो लोग जितना धर्म करते हैं, उनकी रक्षा करनेसे राजा उनसे सौगुने धर्मका भागी होता है। पाण्डवश्रेष्ठ ! यह तुम्हारे लिये नाना प्रकारका धर्म बताया गया है। पूर्वजोंद्वारा आचरित इस सनातन-धर्मका तुम पालन करो। पुरूषसिंह पाण्डुनन्दन ! यदि तुम प्रजाके पालनमें तत्पर रहोगे तो चारों आश्रमोंके, चारों वर्णोंके तथा एकाग्रताके धर्मको प्राप्त कर लोगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वं के अन्तर्गत राजधर्मांनुशासनपर्वं में चारों आश्रमों के धर्म का वर्णनविषयक छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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