महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 21-41

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द्वितीय अध्याय: आदि पर्व (पर्वसंग्रह पर्व)

महाभारत: आदिपर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 32-69 का हिन्दी अनुवाद

अठारहवाँ दिन बीत जाने पर रात्रि के समय अश्वत्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्य ने निःशंक सोते हुए युधिष्ठिर के सैनिकों को मार डाला। शौनक जी! आपके इस सत्संग सत्र में मैं यह जो उत्तम इतिहास महाभारत सुना रहा हूँ, यही जनमेजय के सर्पयज्ञ में व्यास जी के बुद्धिमान शिष्य वैशम्पायन जी के द्वारा भी वर्णन किया गया था। उन्होंने बड़े-बड़े नरपतियों के यश और पराक्रम का विस्तारपूर्वक वर्णन करने के लिये प्रारम्भ में पौष्य, पौलोम और आस्तीक- इन तीन पर्वों का स्मरण किया है। जैसे मोक्ष चाहने वाले पुरुष वैराग्य की शरण ग्रहण करते हैं, वैसे ही प्रज्ञावान मनुष्य अलौकिक अर्थ, विचित्र पद, अदभुत आख्यान और भाँति-भाँति की परस्पर विलक्षण मर्यादाओं से युक्त इस महाभारत का आश्रय ग्रहण करते हैं। जैसे जानने योग्य पदार्थों में आत्मा, प्रिय पदार्थों में अपना जीवन सर्वश्रेष्ठ है, वैसे ही सम्पूर्ण शास्त्रों पर ब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप प्रयोजन को पूर्ण करने वाला यह इतिहास श्रेष्ठ है। जैसे भोजन किये बिना शरीर-निर्वाह सम्भव नहीं है, वैसे ही इस इतिहास का आश्रय किये बिना पृथ्वी पर कोई कथा नहीं है। जैसे अपनी उन्नति चाहने वाले महात्वाकांक्षी सेवक अपने कुलीन और सद्भावसम्पन्न स्वामी की सेवा करते हैं, इसी प्रकार संसार के श्रेष्ठ कवि इस महाभारत की सेवा करके ही अपने काव्य की रचना करते हैं। जैसे लौकिक और वैदिक सब प्रकार के ज्ञान को प्रकाशित करने वाली सम्पूर्ण वाणी स्वरों एव व्यञजनों में समायी रहती है, वैसे ही (लोक, परलोक एवं परमार्थ सम्बन्धी) सम्पूर्ण उत्तम विद्या, बुद्धि इस श्रेष्ठ इतिहास में भरी हुई है। यह महाभारत इतिहास ज्ञान का भण्डार है। इसमें सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थ और उनका अनुभवन कराने वाली युक्तियाँ भरी हुई हैं। इसका एक-एक पद और पर्व आश्चर्यजनक है तथा यह वेदों के धर्ममय अर्थ से अलंकृत है। अब इसके पर्वों की संग्रह-सूची सुनिये। पहले अध्याय में पर्वानुक्रमणी है और दूसरे में पर्व संग्रह। इसके पश्चात पौष्य, पौलोम, आस्तीक और आदि अंशावतरण पर्व हैं। तदनन्तर सम्भव पर्व का वर्ण है, जो अत्यन्त अदभुत और रोमा़ंचकारी है। इसके पश्चात जंतुगृह (लाक्षाभवन) दाहपर्व है। तदनन्तर हिडिम्बवध पर्व है, फिर बकवध और उसके बाद चैत्ररथ पर्व है। उसके बाद पांचाल राजकुमार देवी द्रौपदी के स्वयंवर पर्व का तथा क्षत्रिय धर्म से सब राजाओं पर विजय प्राप्तिपूर्वक वैवाहिक पर्व का वर्णन है। विदुरागमन-राज्यलम्भपर्व, तत्पश्चात अर्जुन वनवास पर्व और फिर सुभद्राहरण पर्व है। सुभद्राहरण के बाद हरणाहरण पर्व है, पुनः खाण्डवदाह पर्व है, उसी में मय-दानव के दर्शन की कथा है। इसके बाद क्रमाशः सभापर्व, मन्त्रपर्व, जरासन्ध-वध पर्व और दिग्विजय पर्व का प्रवचन है। तदनन्तर राजसूय अर्धाभिहरण और शिशुपाल वध पर्व कहे गये हैं। इसके बाद क्रमशः द्यूत एवं अनुद्यूत पर्व हैं। तत्पश्चात वन यात्रा पर्व तथा किर्मरिवध पर्व है। इसके बाद अर्जुनाभिगमन पर्व जानना चाहिये और फिर कैरातपर्व आता है, जिसमें संर्वेश्वर भगवान शिव तथा अर्जुन के युद्ध का वर्णन है। तत्पश्चात इन्द्रलोकाभिगमनपर्व है, फिर धार्मिक तथा करुणोत्पादक नलोपाख्यानपर्व है। तदनन्तर बुद्धिमान करुराज का तीर्थ यात्रा पर्व, जटासुरवध पर्व और उसके बाद यक्ष यु़द्ध पर्व है। इसके पश्चात निवातकवचयुद्ध, अजगर और मार्कण्डेय समास्या पर्व क्रमशः कहे गये हैं। इसके बाद आता है द्रौपदी और सत्यभामा के संवाद का पर्व, इसके अनन्तर घोषयात्रा-पर्व है, उसी में मृगस्वप्रोद्भव और ब्रीहिद्रौणिक उपाख्यान है। तदनन्तर इन्द्रद्युम्न का आख्यान और उसके बाद द्रौपदी हरण-पर्व है। उसी में जयद्रथविमोक्षण पर्व है। इसके बाद पतिव्रता सावित्री के पातिव्रत्य का अदभुत माहात्म्य है। फिर इसी स्थान पर रामोपाख्यान पर्व जानना चाहिये। इसके बाद क्रमशः कुण्डलाहरण और आरण्य-पर्व कहे गये हैं। तदनन्तर विराट पर्व का आरम्भ होता है, जिसमें पाण्डवों के नगर प्रवेश और समय पालन सम्बन्धी पर्व हैं। इसके बाद कीचक वध पर्व, गोग्रहण (गोहरण) पर्व तथा अभिमन्यु और उत्तरा के विवाह का पर्व है। इसके पश्चात परम अदभुत उद्योगपर्व समझना चाहिये। इसी में सञजययानपर्व कहा गया है। तदनन्तर चिन्ता के कारण धृतराष्ट्र के रातभर जागने से सम्बन्ध रखने वाला प्रजागर पर्व समझना चाहिये। तत्पश्चात वह प्रसिद्ध सनत्सुजात पर्व है, जिसमें अत्यन्त गोपनीय अध्यात्म दर्शन का समावेश हुआ है। इसके पश्चात यानसन्धि तथा भगवदयानपर्व है, इसी में मातलिका उपाख्यान, गावल-चरित, सावित्र, वामदेव तथा वैन्य-उपाख्यान, जामदग्न्य और षोडशराजिक उपाख्यान आते हैं। फिर श्रीकृष्ण का सभा प्रवेश, विदुला का अपने पुत्र के प्रति उपदेश, युद्ध का उद्योग, सैन्य निर्याण तथा विश्वोपाख्यान-इनका क्रमशः उल्लेख हुआ है। इसी प्रसंग में महात्मा कर्ण का विवाद पर्व है। तदनन्तर कौरव एवं पाण्डव-सेना का निर्याण-पर्व है। तत्पश्चात रथातिरथ संख्या पर्व और उसके बाद क्रोध की आग प्रज्वलित करने वाला उलूकदूतागमन पर्व है। इसके बाद ही अम्बोपाख्यान पर्व है तत्पश्चात अदभुत भीष्माभिषेचन पर्व कहा गया है। इसके आगे जम्बूखण्ड-विनिर्माण-पर्व है। तदनन्तर भूमि पर्व कहा गया है, जिसमें द्वीपों के विस्तार का कीर्तन किया गया है। इसके बाद क्रमशः भगवद गीता, भीष्म वध, द्रोणाभिषेक तथा संशप्तकवधपर्व हैं। इसके बाद अभिमन्युवध पर्व प्रतिज्ञापर्व जयद्रथ वधपर्व ओर घटोत्कचवध पर्व हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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