महाभारत वन पर्व अध्याय 200 श्लोक 96-110
द्विशततम (200) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व )
त्रिदण्ड धारण करना, मौन रहना, सिर पर जटा का बोझ ढोना, मूंड़ मुड़ाना, शरीर में वलकल और मृगचर्म लपेटे रहना, व्रत का आचरण करना, नहाना, अग्रिहोत्र करना, वन में रहना और शरीर को सुख देना-ये सभी यदि भाव शुद्ध न हो तो व्यर्थ हैं । राजेन्द्र । चक्षु आदि इन्द्रियों के आहार को छोड़ देना कठिन नहीं है; क्योंकि इनिद्रयों के छहों विषयों का उपभोग न करने से वह अपने आप सूगमता से हो जाता है, परंतु उनमें से मन बड़ा विकारी है, इस कारण भाव की शुद्धि के बिना उसको वश में करना अत्यन्त दुष्कर है । जो मन, वाणी, क्रिया और बुद्धि द्वारा कभी पाप नहीं करते हैं, वे ही महात्मा तपस्वी हैं। शरीर को सुखा देना ही तपस्या नहीं है । जिसने व्रत, उपवास आदि के द्वारा शरीर को तो शुद्ध कर लिया और जो नाना प्रकार के पापकर्म भी नहीं करता, किंतु जिसके मन में अपने कुटुम्बी जनों के प्रति दया नहीं आती, उसकी वह निर्दयता उसके तप का नाश करने वाली है; केवल भोजन छोड़ देने का ही नाम तपस्या नहीं है । जो निरन्तर घर पर रहकर भी पवित्र भाव से रहता है, सद्वगुणों से विभूषित होता है और जीवन भर सब प्राणियों पर दया रखता है, उसे मुनि ही समझना चाहिये; वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है । भोजन छोड़ने आदि से पाप कर्मों का शोधन हो जाता हो, ऐसी बात नहीं है। हां, भोजन त्याग देने से यह रक्त मांस से लिपा हुआ शरीर अवश्य क्षीण हो जाता है । शास्त्रों द्वारा जिन का विधान नहीं किया गया है, ऐसे कार्य करने से केवल क्लेश ही हाथ लगता है, उन से पाप नष्ट नहीं किये जा सकते। अग्रि होत्र आदि शुभ कर्म भाव शून्य अर्थात् श्रद्धारहित मनुष्य के पापकर्मों को दग्ध नहीं कर सकते । मनुष्य पुण्य के प्रभाव से ही उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। उपवास भी पुण्य से अर्थात निष्काम भाव से ही शुद्धि का कारण होता है। (बिना शुद्ध भाव के ) केवल फल-मूल खाने, मौन रहने, हवा पीने, सिर मुंड़ाने, एक स्थान पर कुटी बनाकर रहने, सिर पर जटा रखा न, वेदी पर सोन, नित्य उपवास, अग्रि सेवन, जल प्रवेश तथा भूमिश्यन करने से भी शुद्धि नहीं होती है । तत्वज्ञान या सत्कर्म से ही जरा, मृत्यु तथा रोगों का नाश होता है और उत्तम पद (मुक्ति) की प्राप्ति होती है । जैसे आग में जले हुए बीज फिर नहीं उगते हैं, उसी प्रकार ज्ञान के द्वारा अविद्या आदि क्लेशों के नष्ट हो जाने पर आत्मा का पुन: उन से संयोग नहीं होता । जीवात्मा से परित्यत्त होने पर सारे शरीर काठ और दीवार की भांति जडवत् होकर महासागर में उठे हुए फेनों की तरह नष्ट हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है । एक या आधे श्लोक से भी यदि सम्पूर्ण भूतों के ह्दय देश में शयन करने वाले परमात्मा का ज्ञान हो जाय, तो उसके लिये सम्पूर्ण शास्त्रों के अध्ययन का प्रयोजन समाप्त हो जाता है ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|