अशीत्यधिकद्वशततम (280) अध्याय: वन पर्व (रामोख्यान पर्व )
महाभारत: वन पर्व: अशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
राम और सुग्रीव की मित्रता, बाली और सुग्रीव का युद्ध, श्रीराम के द्वारा बाली का वध तथा लंका की अशोकवाटिका में राक्षसियों द्वारा डरायी हुई सीता को त्रिजटा का आश्वासन
मार्कण्डेयजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! तदनन्तर सीता-हरण के दुःख से पीडि़त हो श्रीरामचन्द्रजी पम्पा सरोवर पर गये, जो वहाँ से थोड़ी दूर पर था। उसमें बहुत से कमल और उत्पल खिले हुए थे। उस वन में अमृत सी सुगन्ध लिये मन्द गति से प्रवाहित होने वाली सुखद शीतल चाये का स्पर्श पाकर श्रीरामचन्द्रजी मन-ही-मन अपनी प्रिया सीता का चिन्तन करने लगे। अपनी प्राणवल्लभा का बारंबार स्मरण करके कामबाण से संतप्त हुए से महाराज श्रीराम विलाप करने लगे। उस समय सुमित्रानन्दन लक्ष्मण ने उनसे कहा- ‘मानद ! मन पर काबू रखने वाले तथा वृद्धों के समान संयम-नियम से रहने वाले पुरुष को जैसे कोई रोग नहीं छू सकता, उसी प्रकार आपको ऐसे दैन्यभाव का सपर्श होना उचित नहीं जान पड़ता है। ‘आपको सीता तथा उनका अपहरण करने वाले रावण का समाचार मिल ही गया है। अब आप अपने पुरुषार्थ और बुद्धिबल से जानकी को प्राप्त कीजिये। ‘हम दोनों यहाँ से वानरराज सुग्रीव के पास चलें, जो ऋष्यमूक पर्वत के शिखर पर रहते हैं। मैं आपका शिष्य, सेवक और सहायक हूँ। मेरे रहते आपको धैर्य रखना चाहिये। इस प्रकार लक्ष्मण द्वारा अनेक प्रकार के वचनों से धैर्य दिलाये जाने पर श्रीरामचन्द्रजी स्वस्थ हुए और आवश्यक कार्य में लग गये। उन्होंने पम्पासरोवर के जल में स्नान करके पितरों का तर्पण किया। फिर उन दोनों वीर भ्राता श्रीराम और लक्ष्मण ने वहाँ से प्रस्थान किया। प्रचुर फल, मूल और वृक्षों से भरे हुए ऋष्यमुक पर्वत पर पहुँचकर उन दोनों वीरों ने देखा, पर्वत के शिखर पर पाँच वानर बैठे हुए हैं। सुग्रीव ने हिमालय के समान गम्भीर भाव से बैठे हुए अपने बंद्धिमान् सचिव हनुमान को उन दोनों के पास भेजा। उनके साथ पहले बातचीत हो जाने पर वे दोनों भाई सुग्रीव के पास गये। राजन् ! उस समय श्रीरामचन्द्रजी ने वानरराज सुग्रीव के साथ मैत्री की। राम ने सुग्रीव के समक्ष जब अपना कार्य निवेदन किया, तब उन्होंने श्रीराम को वह वस्त्र दिखाया, जिसे अपहरण काल में सीता ने वानरों के बीच में डाल दिया था। रावण द्वारा सीता के अपहृत होने का यह विश्वासजनक प्रमाण पाकर श्रीराम स्वयं ही वानरराज सुग्रीव को अखिल भूमण्डल के वानरों के सम्राट पद पर अभिषिक्त कर दिया। साथ ही डन्होंने युद्ध में बाली के वध की भी प्रतिज्ञा की। राजन् ! तब सुग्रीव ने भी विदेहनन्दिनी सीता को पुनः ढूँढ़ लाने की प्रतिज्ञा की। इस प्रकार प्रतिज्ञापूर्वक एक-दूसरे को वियवास दिलाकर वे सबके सब किष्किन्धापुरी में आये और युद्ध की अभिलाषा से डटकर खड़े हो गये। मानो बहुत बड़े जनसमूह का शब्द गूँज उठा हो। बाली को यह सहन नहीं हो सका। जब वह युद्ध के लिये निकलने लगा तब उसकी स्त्री तारा ने उसे मना करते हुए कहा-
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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