महाभारत वन पर्व अध्याय 283 श्लोक 19-36

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त्र्यशीत्यधिकद्वशततम (283) अध्‍याय: वन पर्व (रामोख्यान पर्व )

महाभारत: वन पर्व: त्र्यशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद

नल, नील, अंगद, क्राथ, मैन्द तथा द्विविद के द्वारा सुरक्षित हुई वह विशाल वानरसेना श्रीरामचन्द्रजी का कार्य सिद्ध करने के लिये आगे बढ़ती जा रही थी। जहाँ फल-मूल की बहुतायत होती, मधु और कन्द-मूल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते तथा जल की अधिक सुविधा होती, ऐसे कल्याणकारी और उत्तम विविध पर्वतीय शिखरों पर डेरा डालती हुई वह वानरसेना बिना किसी विघ्न-बाधा के खारे पानी के समुद्र के निकट जा पहुँची। असंख्य ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित वह विशाल वाहिनी दूसरे महासागर के समान जान पड़ती थी। सागर के तटवर्ती वन में भगवान् श्रीराम ने सुग्रीव से यह समयोचित बात कही- ‘मित्रों ! हमारी यह सेना बहुत बड़ी है और सामने अत्यन्त दुसतर महासागर लहरें ले रहा है। ऐसी दशा में आप लोग समुद्र के पार जरने के लिये कौन सा उपाय ठीक समझते हैं ?’। जतब वहाँ बहुत से दूसरे-दूसरे वानर, जो बडत्रे अभिमानी थे, कहने लगे - ‘हम तो समुद्र को लाँघ जाने में समर्थ हैं ‘परंतु सब नहीं लाँघ सकते’। कुद वानर बड़ी-बड़ी नावों के द्वारा समुद्र के पार जाने का निश्चय प्रकअ करने लगे। कुछ ने नाव-डोंगी आदि विविध साधनों द्वारा पार जाने की बात कही। परंतु श्रीरामचन्द्रजी ने उनकी यह सलाह मानने से इनकार कर दिया और सबको सान्त्वना देते हुए कहा- ।।26।। ‘वीरों ! सभी वानरों में इतनी शक्ति नहीं हैं कि वे सौ याजन विस्तृत समुद्र को लाँघ सकें; अतः तुम लोगों का यह निर्णय सर्वमान्य सिद्धान्त के रूप में ग्राह्य नहीं है। ‘इतनी बड़ी सेना को पार उतारने के लिये हम लोगों के पास अणिक नौकाएँ भी नहीं हैं। (यदि कहें, व्यापारियों के जहाजों से काम लिया जाय, तो) मेरे जैसा पुरुष अपने स्वार्थ के लिये व्यापारियों के व्यवसाय को हानि कैसे पहुँचा सकतर है ? ‘इसके सिवा नौका आदि से यात्रा करने पर हमारी सेना छिट-फुट होकर बहुत दूर तक फैल जायगी। उस दशा में अवसर पाकर शत्रु इसका नाश भी कर सकता है। इसीलिये डोंगी और नाव आदि पर बैइकर उतरने की बात मुझे ठीक नहीं जँचती है। ‘मैं तो किसी उपाय से इस समुद्र की आराधना आरम्भ करूँगा। इसके तअ पर अन्न-जल छोड़कर धरना दूँगा। इससे यह अवश्य मुझे दर्शन देगा तथा कोई मार्ग दिखाई देगा। ‘यदि यह स्वयं प्रकट होकर कोई मार्ग नहीं दिखायेगा तो मैं अग्नि और वायु से भी अधिक तेजस्वी तथा कभी न चूकने वाले महान् दिव्यास्त्रों द्वारा इसे जलाकर भस्म कर डालूँगा’। एसा कहकर लक्ष्मण सहित श्रीरामचन्द्रजी ने आचमन करके समुद्र के तट पर कुश की चटाई बिछाकर उसपर लेटकर विधिपूर्वक धरना दे दिया। तब नदों और नदियों के स्वामी श्रीमान् समुद्रदेव ने जल-जन्तुओं के साथ प्रकट होकर स्वप्न में श्रीरामचन्द्रजी को दर्शन दिया । वह सैंकड़ों रत्न के आकरों से घिरा हुआ था। उसने ‘कौसल्यानन्दन’ कहकर श्रीराम करे सम्बोधित किया और मधुर वाणी में इस प्रकार कहा- ‘नरश्रेष्ठ ! कहो, मैं यहाँ तुम्हारी क्या सहायता करूँ ? सागरपुत्रों से संवर्धित होने के कारण मैं भी इक्ष्वाकुवंशीय तथा तुमहारा भाई-बन्धु हूँ’। यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने उससे कहा- ‘नद-नदीश्वर ! मैं अपनी सेना के लिये तुम्हारे द्वारा दिया हुआ मार्ग चाहता हूँ, जिससे जाकर पुलत्स्यकुलांगार दशमुख रावण को मार सकूँ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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