महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 28 श्लोक 13-28

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:३८, १४ जुलाई २०१५ का अवतरण
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

अष्टाविंश (28) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: अष्टाविंश अध्याय: श्लोक 13-28 का हिन्दी अनुवाद


पहले तुम्हें इस पशु के उन सम्बन्धियों से मिलना चाहिये। यदि वे भी ऐसा ही करने की अनुमति दे दें, तब उनका अनुमोदन सुनकर तदनुसार विचार कर सकते हो। तुमने इस छाग की इन्द्रियों उनके कारणों में विलीन कर दिया है। मेरे विचार से अब तो केवल इसका निश्चेष्ट शरीर ही अवशिष्ट रह गया है। यह चेतनाशून्य जड शरीर ईंधन ही समान है, उससे हिंसा के प्रायश्चित की इच्छा से यज्ञ करने वालों के लिये ईंधन ही पशु है (अत: जो कमा ईधन से होता है, उसके लिये पशु हिंसा क्यों की जाय?)। वृद्ध पुरुषों का यह उपदेश है कि अहिंसा सब धर्मों में श्रेष्ठ है, जो कार्य हिंसा से रहित हो वही करने योग्य है, यही हमारा मत है। इसके बाद भी यदि मैं कुछ कहूँ तो यही कह सकता हूँ कि सबको यह प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये कि ‘मैं अंहिसा धर्म का पालन करूँगा।’ अन्यथा आपके द्वारा नाना प्रकार के कार्य दोष सम्पादित हो सकते हैं। किसी भी प्राणी की हिंसा न करना ही हमेंसदा अच्छा लगता है। हम प्रत्यक्ष फल के साधक हैं, परोक्ष की उपासना नहीं करते हैं। अध्वर्यु ने कहा- यते! यह तो तुम मानते ही हो कि सभी भूतों में प्राण है, तो भी तुम पृथ्वी के गन्ध गुणों का उपभोग करते हो, जलमय रसों को पीते हो, तेज के गुण? रूप का दर्शन करते हो और वायु के गुण स्पर्श को छूते हो, आकाशजनित शब्दों को सुनते हो और मन से मति का मनन करते हो। एक ओर तो तुम किसी प्राणी के प्राण लेने के कार्य से निवृत्त हो और दूसरी ओर हिंसा में लगे हुए हो। द्विजवर! कोई भी चेष्टा हिंसा के बिना नहीं होती। फिर तुम कैसे समझते हो कि तुम्हारे द्वारा अहिंसा का ही पालन हो रहा है? यति ने कहा- आत्मा के रूप हैं- एक अक्षर और दूसरा क्षर। जिसकी सत्ता तीनों कालों में कभी नहीं मिटती वह सत्स्वरूप अक्षर (अविनाशी) कहा गया है तथा जिसका सर्वथा और सभी कालों में अभाव है, वह क्षर कहलाता है। प्राण, जिह्वा, मन और रजोगुण सहित सत्त्वगुण- ये रज अर्थात् माया सहित सद्भाव हैं। इन भावों से मुक्त निर्द्वन्द्व, निष्काम, समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखने वाले, ममता रहित, जितात्मा तथा सब ओर से बन्धनशून्य पुरुष को कभी और कहीं भी भय नहीं होता। अध्वर्यु ने कहा- बुद्धिमान में श्रेष्ठ यते! इस जगत् में आप जैसे साधु पुरुषों के साथ ही निवास करना उचित है। आपका यह मत सुनकर मेरी बुद्धि में भी ऐसी ही प्रतीति हो रही है। भगवन! विप्रवर! मैं आपकी बुद्धि से ज्ञान सम्मन्न होकर यह बात कह रहा हूँ कि वेद मंत्रों द्वारा निश्चित किये हुए व्रत का ही मैं पालन कर रहा हूँ। अत: इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है। ब्राह्मण कहते हैं- प्रिये! अध्वर्यु की दी हुई युक्ति से वह यति चुप हो गया और फिर कुछ नहीं बोला। फिर अध्वर्यु भी मोहरहित होकर उस महायज्ञ में अग्रसर हुआ। इस प्रकार ब्राह्मण मोक्ष का ऐसा ही अत्यन्त सूक्ष्म स्वरूप बताते हैं और तत्त्दर्शी पुरुष के उपदेश के अनुसार उस मोक्ष धर्म को जानकर उसका अनुष्ठान करते हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व के ब्राह्मण गीताविषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।









« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख