एकनवतितम (91) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकनवतितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
तात! तुम युद्धमें संलग्न होकर दुर्बल मनुष्यको कर लेने के द्वारा अपने उपभोग का विषय न बनाना। जैसे आग अपने आश्रयभूत काष्ठ को जला देती है, उसी प्रकार दुर्बलों की दृष्टि तुम्हें दग्ध न कर डाले। झूठे अपराध लगाये जाने पर रोते हुए दीन-दुर्बल मनुष्यों के नेत्रों से जो आँसू गिरते हैं, वे मिथ्या कलंक लगाने के कारण उन अपराधियों के पुत्रों और पशुओं का नाश कर डालते हैं। यदि पाप का फल अपने को नहीं मिला तो वह पुत्रों तथा नाती-पोतों को अवश्य मिलता है। जैसे पृथ्वी में बोया हुआ बीज तुरंत फल नहीं देता, उसी प्रकार किया हुआ पाप भी तत्काल फल नहीं देता (समय आनेपर ही उसका फल मिलता है)। सताया जाने वाला दुर्बल मनुष्य जहाँ अपने लिये कोई रक्षक नहीं पाता है, वहाँ सताने वाले पापी को दैव की ओर से भयंकर दण्ड प्राप्त होता है। जब बाहर गावों के लोग एक समूह बनाकर भिक्षुकरूप से ब्राह्मणोंके समान भिक्षा माँगने लगते हैं, तब वैसे लोग एक दिन राजाका विनाश कर डालते हैं। जब राजा के बहुत-से कर्मचारी देश में अन्यायपूर्ण बर्ताव करने लगते हैं, तब वह महान् पाप राजा को ही लगता है। यदि कोई राजा या राजकीय कर्मचारी दीनतापूर्ण याचना करती हुई प्रजाओं की उस प्रार्थना को ठुकराकर स्वेच्छा से अथवा धनके लोभवश कोई-न-कोई युक्ति करके उनके धन का अपहरण कर ले तो वह राजा के महान् विनाश का सूचक है। जब कोई महान् वृक्ष पैदा होता और क्रमशः बढ़ता है, तब बहुत-से प्राणी (पक्षी) आकर उस पर बसेरे लेते हैं और जब उस वृक्ष को काटा या जला दिया जाता है, तब उस पर रहने वाले सभी जीव निराश्रय हो जाते हैं। जब राज्य में रहने वाले लोग राजा के गुणों का बखान करते हुए वैदिक संस्कारों के साथ उत्तम धर्म का आचरण करते हैं, उस समय राजा पापमुक्त हो जाता है तथा जब वे ही लोग धर्म के विषय में मोहित हो जानेके कारण अधर्माचरण करने लगते हैं, उस समय राजा शीघ्र ही पुण्य से हीन हो जाता है। जहाँ पापी मनुष्य प्रकटरूप् से निर्भय विचरते हैं, वहाँ सत्पुरूषों की दृष्टिमें समझा जाता है कि राजा को कलियुगने घेर लिया है; किंतु जब राजा दुष्ट मनुष्यों को दण्ड देता है, तब उसका राज्य सब ओर से उन्नत होने लगता है। जो राजा अपने मन्त्रियों का यथार्थरूपसे सम्मान करके उन्हें मन्त्रणा अथवा युद्धके काम में नियुक्त करता है, उसका राज्य दिनोंदिन बढ़ता है और वह चिरकाल तक समूची पृथ्वी का राज्य भोगता है। जो राजा अपने कर्मचारी अथवा प्रजा का पुण्यकर्म देखकर तथा उनकी सुन्दर वाणी सुनकर उन सबका यथायोग्य सम्मान करता है, वह परम उत्तम धर्म को प्राप्त कर लेता है। राजा जब उसको यथायोग्य विभाग देकर स्वयं उपभोग करता है, मन्त्रियों का अनादार नहीं करता है और बल के घमंड में चूर रहनेवाले दुष्ट पुरूष या शत्रु को मार डालता है, तब उसका यह सब कार्य राजधर्म कहलाता है। जब वह मन, वाणी और शरीर के द्वारा सबकी रक्षा करता है और पुत्र को भी अपराध को क्षमा नहीं करता, तब उसका बर्ताव भी ‘राजाका धर्म‘ कहा जाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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