त्रिनवतितम (93) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिनवतितम अध्याय: श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद
मूर्ख, इन्द्रियलोलुप, लोभी, दुराचारी, शठ, कपटी, हिंसक, दुर्बद्धि, अनेक शास्त्रों के ज्ञानसे शून्य, उच्चभावना से रहित, शराबी, जुआरी, स्त्रीलम्पट और मृगयासक्त पुरूष को जो राजा महत्त्वपूर्ण कार्यों पर नियुक्त करता है, वह लक्ष्मी से हीन हो जाता है। जो नरेश अपने शरीर की रक्षा करके रक्षणीय पुरूषों की भी सदा रक्षा करता है, उसकी प्रजा अभ्युदयशील होती है और वह राजा भी निश्चय ही महान् फल का भागी होता है। जो राजा अपने अप्रसिद्ध सुहृदों के द्वारा गुप्तरूप से समस्त भूपतियों की अवस्थाका निरीक्षण कराता है, वह अपने इस बर्ताव के द्वारा सर्वश्रेष्ठ हो जाता है। किसी बलवान् शत्रुका अपकार करके हम दूर जाकर रहेंगे, ऐसा समझकर निश्चिन्त नहीं होना चाहिये; क्योंकि जैसे बाज पक्षी झपटा मारता है, उसी प्रकार ये दूरस्थ शत्रु भी असावधानी की अवस्था में टूट पड़ते हैं। राजा अपने को दृढ़मूल (अपनी राजधानीको सुरक्षित) करके विरोधी लोगों को दूर रखकर अपनी शक्ति को समझ ले; फिर अपनेसे दुर्बल शत्रु पर ही आक्रमण करे। जो अपने से प्रबल हों, उन पर आक्रमण न करे। पराक्रम से इस पृथ्वी को प्राप्त करके धर्मपरायण राजा अपनी प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करे तथा युद्धमें शत्रुओं का संहार कर डाले। राजन्! इस जगत् के सभी पदार्थ अन्त में नष्ट होने वाले हैं; यहाँ कोई भी वस्तु नीरोग या अविराशी नहीं है। इसलिये राजाको धर्म पर स्थित रहकर प्रजा का धर्म के अनुसार ही पालन करना चाहिये। रक्षा के स्थान दुर्ग आदि, युद्ध, धर्म के अनुसार राज्यका शासन, मन्त्र-चिन्तन तथा यथासमय सबका सुख प्रदान करना-इन पाँचों के द्वारा राज्य की वृद्धि हाती है। जिसकी ये सब बातें गुप्त या सुरक्षित रहती हैं, वह राजा समस्त राजाओं में श्रेष्ठ माना जाता है। इनके पालन में सदा संलग्न रहनेवाला नरेश ही इस पृथ्वी की रक्षा कर सकता है। एक ही पुरूष इन बातों पर सदा ध्यान नहीं रख सकता, इसलिये इन सबका भार सुयोग्य अधिकारियों को सौंपकर राजा चिरकालतक इस भूतल का राज्य भोग सकता है। जो पुरूष दानशील, सबके लिये सम्यक् विभागपूर्वक आवश्यक वस्तुओंका वितरण करने वाला, मृदुलस्वभाव, शुद्ध आचार-विचार वाला तथा मनुष्योंका त्याग न करनेवाला होता है, उसी को लोग राजा बनाते हैं। जो कल्याणकारी उपदेश सुनकर अपने मत का आग्रह छोड़ उस ज्ञान को ग्रहण कर लेता है, उसके पीछे यह सारा जगत् चलता है।
जो मन के प्रतिकूल होनेके कारण अपने ही प्रयोजन की सिद्धि चाहने वाले सुहृद् की बात नहीं सहन करता और अपनी अर्थसिद्धिके विरोधी वचनों को भी सुनता है, सदा अनमना-सा रहता है, जो बुद्धिमान् शिष्ट पुरूषों द्वारा आचरण में लाये हुए बर्ताव का सदा सेवन नहीं करता एवं पराजित या अपराजित व्यक्तियों को उनके परम्परागत आचार का पालन नहीं करने देता, वह क्षत्रिय-धर्म से गिर जाता है। जिसको कभी कैद किया गया हो ऐसे मन्त्रों से, विशेषतः स्त्रियों से, विषम पर्वत से, दुर्गम स्थान से तथा हाथी, घोड़े और सर्पसे सदा सावधान रहकर राजा अपनी रक्षा करे। जो प्रधान मन्त्रियों का त्याग करके निम्नश्रेणी के मनुष्यों को अपना प्रिय बनाता है, वह संकट के घोर समुद्र में पड़कर पीडि़त हो कहीं आश्रय नहीं पाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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