सप्तनवतितम (97) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तनवतितम अध्याय: श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद
यदि वे रक्षा पाये हुए मनुष्य कृतज्ञ होकर सदैव उस शूरवीर के सामने नतमस्तक होते रहें, तभी उसके प्रति उचित एवं न्यायसंगत कर्तव्यका पालन कर पाते हैं; अन्यथा उनकी स्थिति इसके विपरीत होती है। सभी पुरूष देखने में समान होते हैं; परंतु युद्धस्थलमें जब सैनिकोंके परस्पर भिड़ने का समय आता है और चारों ओर से वीरों की पुकार होने लगती है, उस समय उनमें महान् अन्तर दृष्टिगोचर होता है। एक श्रेणी के वीर तो निर्भय होकर शत्रुओं पर टूट पड़ते हैं और दूसरी श्रेणी के लोग प्राण बचाने की चिन्ता में पड़ जाते हैं। शूरवीर शत्रु के सम्मुख वेगसे आगे बढ़ता है और भीरू पुरूष पीठ दिखाकर भागने लगता है। वह स्वर्गलोक के मार्ग पर पहुँचकर भी अपने सहायकों को उस संकट मे समय अकेला छोड़ देता है। तात! जो लोग रणभूमि में अपने सहायको को छोड़कर कुशलपूर्वक अपने घर लौट जाते हैं, वैसे नराधमों को तुम कभी पैदा मत करना। उनके लिये इन्द्र आदि देवता अमंगल मनाते हैं। जो सहायकों को छोड़कर अपने प्राण बचाने की इच्छा रखता है, ऐसे कायरको उसके साथी क्षत्रिय लाठी या ढेलों से पीटें अथवा घासके ढेरकी आग में जला दें या उसे पशु की भाँति गला घोटकर मार डालेें। खाटपर सोकर मरना क्षत्रियके लिये अधर्म है। जो क्षत्रिय कफ और मल-मूत्र छोड़ता तथा दुखी होकर विलाप करता हुआ बिना घायल हुए शरीर से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, उसके इस कर्म की प्राचीन धर्मको जाननवाले विद्वान् पुरूष प्रशंसा नहीं करते हैं। क्योंकि तात ! वीर क्षत्रियों का घरमें मरण हो, यह उनके लिये प्रशंसा की बात नहीं है। वीरोंके लिये यह कायरता और दीनता अधर्मकी बात है। ‘यह बड़ा दुःख है। बड़ी पीड़ा हो रही है! यह मेरे किसी महान् पाप का सूचक है।‘ इस प्रकार आर्तनाद करना, विकृत-मुख हो जाना, दुर्गनिधत शरीर से मन्त्रियों के लिये निरन्तर शोक करना, नीरोग मनुष्यों की सी स्थिति प्राप्त करने की कामना करना और वर्तमान रूग्णावस्थामें बारंबार मृत्यूकी इच्छा रखना-ऐसी मौत किसी स्वाभिमानी वीर के योग्य नहीं है। क्षत्रिय को तो चाहिये कि अपने सजातीय बन्धुओं से घिरकर समरांगण में महान् संहार मचाता हुआ तीखे शस्त्रों से अत्यन्त पीडि़त होकर प्राणोंका परित्याग करे-वह ऐसी ही मृत्युके योग्य है। शुरवीर क्षत्रिय विजयी कामना और शत्रु के प्रति रोष से युक्त हो बड़े वेग से युद्ध करता है। शत्रुओं द्वारा क्षत-विक्षत किये जानेवाले अपने अंगों की उसे सुधबुध नहीं रहती है। वह युद्धमें लोकपूजित सर्वश्रेष्ठ मृत्यु एवं महान् धर्म को पाकर इन्द्रलोक में चला जाता है। शूरवीर प्राणोंका मोह छोड़कर युद्धमे मुहानेपर खड़ा होकर सभी उपायोंसे जूझता है और शत्रुको कभी पीठ नहीं दिखाता है; ऐसा शूरवीर इन्द्रके समान लोकका अधिकारी होता है। शत्रुओं से घिरा हुआ शूरवीर यदि मन में दीनता न लावे तो वह जहाँ कहीं भी मारा जाय, अक्षय लोकों को प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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