महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 98 श्लोक 1-10
अष्टनवतितम (98) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपकों का वर्णन तथा समरभूमि में जूझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह ! जो शूरवीर शत्रुके साथ डटकर युद्ध करते हैं और कभी पीठ नहीं दिखाते, वे समरांगणमें मृत्युको प्राप्त होकर किन लोकों में जाते हैं, यह मुझे बताइये। भीष्मजी ने कहा- युधिष्ठिर ! इस विषयमें अम्बरीष और इन्द्रके संवादरूप् एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है। नाभागपुत्र अम्बरीषने अन्यन्त दुर्लभ स्वर्गलोकमें जाकर देखा कि उनका सेनापति देवलोकमें इन्द्रके साथ विराजमान है। वह सम्पूर्णतः तेजस्वी, दिव्य एवं श्रेष्ठ विमानपर बैठकर ऊपर-ऊपर चला जा रहा था। अपने शक्तिशाली सेनापतिको अपनेसे भी ऊपर होकर जाते देख सुदेवकी उस समृद्धिका प्रत्यक्ष दर्शन करके उदारबुद्धि राजा अम्बरीष आश्चर्यसे चकित हो उठे और इन्द्रदेवसे बोले। अम्बरीषने पूछा- देवराज ! मैं समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीका विधिपूर्वक शासन और संरक्षण करता था। शास्त्रीकी आज्ञा के अनुसार धर्मकी कामना से चारों वर्णों के पालन में तत्पर रहता है। मैंने घोर ब्रह्मचर्य का पालन करके गुरू के बताये हुए आचार और गुरू की सेवा के द्वारा धर्मपूर्वक वेदों का अध्ययन किया तथा राजशास्त्र की विशेष शिक्षा प्राप्त की। सदा ही अन्न-पान देकर अतिथियोंका, श्राद्धकर्म करके पितरोंका, स्वाध्याकी दीक्षा लेकर ऋषियों का तथा उत्तमोत्तम यज्ञों का अनुष्ठान करके देवताओं का पूजन किया। देवेन्द्र! मैं शास्त्रोक्त विधि के अनुसार क्षत्रिय धर्म में स्थित होकर सेना की देख-भाल करता और युद्व में शत्रुओं पर विजय पाता था। देवराज ! यह सुदेव पहले मेरा सेनापति था शान्त स्वभाव का एक सैनिक था फिर यह मुझे लाँघकर कैसे जा रहा है?
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