नवनवतितम (98) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: नवनवतितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
- शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति के विषय में मिथिलेश्वर जनक का इतिहास
भीष्म जी कहते हैं-राजन् ! इसी विषय में विज्ञ पुरूष उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जिससे यह पता चलता है कि किसी समय राजा प्रतर्दन तथा मिथिलेश्वर जनक ने परस्पर संग्राम किया था। युधिष्ठिर! यज्ञोपवीतधारी मिथिलापति जनक ने रणभूमि में अपने योद्धाओं को जिस प्रकार उत्साहित किया था, वह सुनो। मिथिला के राजा जनक बड़े महात्मा और सम्पूर्ण तत्त्वों के ज्ञाता थे। उन्होंने अपने योद्धाओं को योगबल से स्वर्ग और नरक का प्रत्यक्ष दर्शन कराया और इस प्रकार कहा-’वीरो! देखो, ये जो तेजस्वी लोक दृष्टिगोचर हो रहे है, ये निर्भय होकर युद्ध करने वाले वीरों को प्राप्त होते हैं। ये अविनाशी लोक असंख्य गन्धर्वकन्याओं (अप्सराओं) से भरे हुए हैं और सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति करने वाले हैं’।
’और देखो, ये जो तुम्हारे सामने नरक उपस्थित हुए हैं, युद्ध में पीठ दिखाकर भागने वालों को मिलते हैं। साथ ही इस जगत् में उनकी सदा रहने वाली अपकीर्ति फैल जाती है; अतः अब तुम लोगों को विजय के लिये प्रयत्न करना चाहिये’। ’उन स्वर्ग और नरक दोनों प्रकार के लोकों का दर्शन करके तुम लोग युद्ध में प्राण-विसर्जन के लिये दृढ़ निश्चय के साथ डट जाओ और शत्रुओं पर विजय प्राप्त करो। जिसकी कहीं भी प्रतिष्ठा नहीं है, उस नरक के अधीन न होओ। ’शूरवीरों को जो सर्वोत्तम स्वर्गलोक का द्वार प्राप्त होता है, उसमें उनका त्याग ही मूल कारण हैं’। शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले युधिष्ठिर ! राजा जनक के ऐसा कहने पर उन योद्धाओं ने रणभूमि में अपने महाराज का हर्षं बढ़ाते हुए उनके शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली; अतः मनस्वी वीर को सदा युद्ध के मुहाने पर डटे रहना चाहिये। गजारोहियों के बीच में रथियों को खड़ा करे। रथियों के पीछे घुड़सवारों की सेना रखे और उनके बीच में कवच एवं अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित पैदलों की सेना खड़ी करे। जो राजा अपनी सेना का इस प्रकार व्यूह बनाता है, वह सदा शत्रुओं पर विजय पाता है; अतः युधिष्ठिर ! तुम्हें भी सदा इसी प्रकार व्यूहरचना करनी चाहिये। सभी क्षत्रिय उत्तम युद्ध के द्वारा स्वर्गलोक प्राप्त करने की इच्छा करते हैं; अतः जैसे मकर समुद्र में क्षोभ उत्पन्न कर देते हैं, उसी प्रकार वे अत्यन्त कुपित हो शत्रुओं की सेनाओं में हलचल मचा देते हैं।
यदि अपने सैनिक विषादग्रस्त या शिथिल हो रहे हों तो उनका पूर्ववत् व्यूह बनाकर उन्हें परस्पर स्थापित करे और उन समस्त योद्धाओं का हर्ष एवं उत्साह बढ़ावे। जो भूमि जीत ली गयी हो, उसकी रक्षा करे; परंतु शत्रुओं के जो सैंनिक पराजित होकर भाग रहे हों, उनका बहुत दूर तक पीछा नहीं करना चाहिये। राजर्षि जनक अपने सैनिकों को स्वर्ग और नरक की बात कह रहे है। राजन् ! जो जीवन से निराश होकर पुनः युद्ध के लिये लौट पड़ते हैं, उनका वेग अत्यन्त दुःसह होता है; अतः भागते हुओं के पीछे अधिक नहीं पड़ना चाहिये। शूरवीर जोर-जोर से भागते हुए योद्धाओं पर प्रहार करना नहीं चाहते हैं; अतः पलायन करने वाले सैनिकों का अधिक दूर तक पीछा नहीं करना चाहिये। चलने वाले प्राणियों के अन्न हैं स्थावर, दाँत वाले जीवों के अन्न हैं बिना दाँत के प्राणी, प्यासों का अन्न है पानी और शूरवीरों के अन्न हैं कायर। वीरों और कायरों के पेट, पीठ, हाथ और पैर समान ही होते हैं; तो भी कायर पुरूष जगत् में अपमान को प्राप्त होते हैं। अतः भय से आतुर हुए वे मनुष्य हाथ जोड़कर बारंबार प्रणाम करते हुए सदा शूरवीरों की शरण आते हैं। जैसे पुत्र सदा पिता पर अवलम्बित होता हैं, उसी प्रकार यह सारा जगत् शूरवीरों की भुजाओं पर ही टिका हुआ हैं; इसलिये सभी अवस्थाओं में वीर पुरूष सम्मान पाने के योग्य हैं। तीनों लोकों में शूरवीरता से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं हैं। शूरवीर सबका पालन करता है और सारा जगत् उसी के आधार पर टिका हुआ हैं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वं में विजयाभिलाषी राजा का बर्ताव विषयक निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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