अष्टाधिकशततम (108) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
- माता-पिता तथा गुरू की सेवा का महत्व
युधिष्ठिरने पूछा- भारत! धर्मका यह मार्ग बहुत बडा़ है तथा इसकी बहुत -सी शाखाएँ हैं इन धर्मी में से किसको आप विशेषरूप से आचरण में लाने योग्य समझने हैं? सब धर्मों में कौन -सा कार्य आपको श्रेष्ठ जान पड़ता है, जिसका अनुष्ठान करके मैं इहलोक और परलोक में भी परम धर्मका फल प्राप्त कर सकूँ? भीष्मजीने कहा - राजन्! मुझे तो माता -पिता तथा गुरूजनों की पूजा ही अधिक महत्वकी वस्तु जान पड़ती हैं। इसलोक में इस पुण्य कार्य में संलग्न होकर मनुष्य महान् यश और श्रेष्ठ लोक पाता हैं। तात युधिष्ठिर ! भलीभाती पूजित हुए वे माता -पिता और गुरूजन जिस काम के लिये आज्ञा दें, वह धर्मके अनुकूल हो या विरूद्ध, उसका पालन करना ही चाहिये । जो उनकी आज्ञा के पालन में संलग्न है। जिस कार्य के लिये वे आज्ञा दें, वही धर्म है ऐसा धर्मात्माओं का निश्चय है। ये माता -पिता और गुरूजन ही तीनों लोक हैं, यही तीनों आश्रम हैं, यही तीनों वेद हैं तथा दे ही तीनों अग्नियाँ है। पिता गार्हपत्य अग्नि हैं, माता दक्षिणाग्नि मानी गयी है और गुरू आहवनीय अग्नि का स्वरूप हैं। लौकिक अग्नियों से माता -पिता आदि ित्रविध अग्नियों का गौरव अधिक है। यदि तुम इनतीनों की सेवामें कोई भूल नहीं करोगे तो तीनों लोकों को जीत लोगे। पिताकी सेवासे परलोकको तथा नियमपूर्वक गुरूजी सेवासे ब्रह्यलोक को भी लाँघ जाओगे। भरतनन्दन! इसलियतुम त्रिविध लोकस्वरूप इन तीनों के प्रति उत्तम बर्ताव करो। तुम्हारा कल्याण हो। ऐसा करने से तुम्हें यश और महान् फल देने वाले धर्म की प्राप्ति होगी होगी। इन तीनों की आज्ञा का कभी उल्लंघन न करे, इनको भोजन कराने को पहले स्वयं भोजन न करे, इन पर कोई दोषा रोपण न करें और सदा इनकी सेवा में संलग्न रहे। यही सबसे उत्तम पुण्य कर्म है। नृपश्रेष्ठ! इनकी सेवासे तुम कीर्ति, पवित्र यश और उत्तम लोक सब कुछ प्राप्त कर लोगे। जिसने इन तीनोंका आदर कर लिया, उसने द्धारा सम्पूण लोकों का आदर हो गया और जिसने इनकाअनादर कर दिया, उसके सम्पूर्ण शुभ कर्म निष्फल हो जाते हैं। शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! जिसने इन तीनों गुरूजानों का सदा अपमान ही किया है, उसके लिये न तो यह लोक सुखद है और न परलोक । न इस लोक में और न परलोक में ही उसका यश प्रकाशित होता है। परलोक में जो अन्य कल्याणमय सुखकी प्राप्ति बतायी गयी है, वह भी उसेसुलभ नहीं होती है। मैं तो सारा शुभ कर्म करके इन तीनों गुरूजनों को ही समर्पित कर देता था। इससे मेरे उन सभी शुभ कर्मों का पुण्य सौगुना और हजारगुना बढ़ गया है। युधिष्ठिर ! इसीसे तीनों लोक मेरी दृष्टि के सामने प्रकाशित हो रहे हैं। आचार्य सदा दस श्रोत्रियों से बढ़कर है। उपाध्यायविघागुरू दस आचार्योसे अधिक महत्व रखता है पिता दस उपाध्यायोंसे बढकर है और माता का महत्व दस पिताओंसे भी अधिक है वह अकेली ही अपने गौरव के द्वारा सारी पृथ्वी को भी तिरस्कृत कर देते है अतः माता के समान दूसरा कोई गुरू नहीं है। परन्तु मेरा विश्वास यह है कि गुरू का पद पिता और माता से भी बढ़कर है क्योंकि माता -पिता तो केवल इस शरीर को जन्म देने के ही उपयोग में आते है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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