एकोनपञ्चादधिकशततम (149) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व: एकोनपञ्चादधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—राजन! गान्धारी के ऐसा कहनेपर राजा धृतराष्ट्र ने समस्त राजाओं के बीच दुर्योधन से इस प्रकार कहा-बेटा दुर्योधन ! मेरी यह बात सुन। तेरा कल्याण हो। यदि तेरे मनमें पिता के लिये कुछ भी गौरव है तो तुझसे जो कुछ कहूँ, उसका पालन कर। सबसे पहले प्रजापति सोम हुए, जो कौरववंशकी वृद्धि के कारण हैं। सोमसे छठी पीढीमें नहुषपुत्र ययाति का जन्म हुआ। ययाति के पाँच पुत्र हुए, जो सब-के-सब श्रेष्ठ राजर्ष्िा थे। उनमें महातेजस्वी एवं शक्तिशाली ज्येष्ठ पुत्र यदु थे और सबसे छोटे पुत्रका नाम पुरू हुआ, जिन्होंने हमारे इस वंशकी वृद्धि की है। वे वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठाके गर्भ से उत्पन्न हुए थे।’भरतश्रेष्ठ ! यदु देवयानीके पुत्र थे। तात ! वे अमित तेजस्वी शुक्राचार्य के दौहित्र लगते थे। वे बलवान्, उत्तम पराक्रमसे सम्पन्न एवं यादवों के वंश प्रर्वतक हुए थे। उनकी बुद्धि बड़ी मन्द थी और उन्होंने घमंड में आकर समस्त क्षत्रियों का अपमान किया किया था। ’बल के घमंडसे वे इतने मोहित हो रहे थे कि पिता के आदेश पर चलते ही नहीं थे किसीसे पराजित न होनेवाले यदु अपने भाइयों और पिताका भी अपमान करते थे ।चारों समुद्र जिसके अन्तमें है, उस भूमण्डलमें यदु ही सबसे अधिक बलवान थे। वे समस्त राजाओं को वशमें करके हस्तिनापुरमें निवास करते थे।’गान्धारीपुत्र! यदु के पिता नहुषनन्दन ययातिने अत्यन्त कुपित होकर यदुको शाप दे दिया और उन्हें राज्यसे भी उतार दिया। अपने बलका घमंड रखनेवाले जिन-जिन भाइयों ने यदु का अनुसरण किया, ययाति ने कुपित होकर अपने उन पुत्रों को भी शाप दे दिया। तदन्नतर अपने अधीन रहनेवाले आज्ञापालक छोटे पुत्र पुरूको नृपश्रेष्ठ ययातिने राज्यपर बिठाया। इस प्रकार यह सिद्ध है कि ज्येष्ठ पुत्र भी यदि अहंकारी हो तो उसे राज्यकी प्राप्ति नहीं होती और छोटे पुत्र भी वृद्ध पुरूषों की सेवा करनेसे राज्य पानेके अधिकारी हो जाते हैं। इसी प्रकार मेरे पिताके पितामह राजा प्रतीप सब धर्मों के ज्ञाता एवं तीनों लोकों में विख्यात थे। धर्मपूर्वक राज्यका शासन करते हुए नृपप्रवर प्रतीपके तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो देवताओं के समान तेजस्वी और यशस्वी थे। तात ! उन तीनोंमें सबसे श्रेष्ठ थे देवापि ! उनके बाद वाले राजकुमारका नाम वाह्रीक था तथा प्रतीप के तीसरे पुत्र मेरे धैर्यवान पितामह शान्तुन थे।’नृपश्रेष्ठ देवापि महान तेजस्वी होते हुए भी चर्मरोगसे पीड़ित थे। वे धार्मिक, सत्यवादी, पिताकी सेवामें तत्पर, साधु पुरूषों द्वारा सम्मानित तथा नगर एवं जनपद - निवासियों के लिये आदरणीय थे। देवापिने बालकों से लेकर वृद्धों तक सभीके ह्रदयमें अपना स्थान बना लिया था। वे उदार, सत्यप्रतिज्ञ और समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहनेवाले थे। पिता तथा ब्राह्रमणोंके आदेशके अनुसार चलते थे। वे बाह्रीक तथा महात्मा शान्तनुके प्रिय बन्धु थे। परस्पर संगठित रहनेवाले उन तीनों महामना बन्धुओंका परस्पर अच्छे भाईका-सा स्नेहपूर्ण बर्ताव था। तदन्तर कुछ काल बीतनेपर बूढे नृपश्रेष्ठ प्रतीप ने शास्त्रीय विधि के अनुसार राज्याभिषेक का संग्रह कराया। उन्होंने देवापिके मंगल के लिये सभी आवश्यक कृत्य सम्पन्न कराये; परंतु उस समय सब ब्राह्मणों तथा वृद्ध पुरूषोंने नगर और जनपद के लोगों के साथ आकर देवापि का राज्याभिषेक रोक दिया किंतु राज्याभिषेक रोकनेकी बात सुनकर राजा प्रतीप का गला भर आया और वे अपने पुत्र के लिए शोक करने लगे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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