एकादशाधिकशततम (111) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
- मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा
युधिष्ठिर ने पूछा- तात ! बहुत-से कठोर स्वभाव वाले मनुष्य ऊपर से कोमल और शान्त बने रहते हैं, तथा कोमल स्वभाव के लोग कठोर दिखायी देते हैं, ऐसे मनुष्यों की मुझे ठीक-ठीक पहचान कैसे हो? भीष्म जी बोले-युधिष्ठिर ! इस विषय में जानकार लोग एक बाघ और सियार के संवाद रुप प्राचीन आख्यान का उदाहरण दिया करते हैं, उसे ध्यान देकर सुनो। पूर्वकाल की बात है, प्रचुर धन-धान्य से सम्पन्न पुरिका नाम की नगरी में पौरिक नाम से प्रसिद्ध एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा ही क्रुर और नराधम था, दूसरे प्राणियों की हिंसा में ही उसका मन लगता था। धीरे-धीरे उसकी आयु समाप्त हो गयी और वह ऐसी गति को प्राप्त हुआ, जो किसी भी प्राणी को अभीष्ट नहीं है। वह अपने पूर्वक्रम से दुषित होकर दूसरे जन्म में गीदड़ हो गया। उस समय अपने पूर्व जन्म के वैभव का स्मरण करके उस सियार को बड़ा खेद और वैराग्य हुआ। अत: वह दूसरों के द्वारा दिये हुए मांस को भी नहीं खाता था। अब उसने जीवों की हिंसा करनी छोड़ दी, सत्य बोलने का नियम ले लिया और दृढ़तापूर्वक अपने व्रत का पालन करने लगा। वह नियम समय पर वृक्षों से अपने आप गिरे हुए फलों का आहार करता था। व्रत और नियमों के पालन मे तत्पर हो कभी पता चबा लेता और कभी पानी पीकर ही रह जाता था। उसका जीवन संयम में बँध गया था। वह श्मशान भूमि में ही रहता था। वहीं उसका जन्म हुआ था, इसलिये वही स्थान उसे पसंद था। उसे और कहीं जाकर रहने की रुचि नहीं होती थी। सियार का इस तरह पवित्र आचार-विचार से रहना उसके सभी जाति-भाइयों को अच्छा न लगा। यह सब उनके लिये असहाय हो उठा; इसलिये वे प्रेम और विनयभरी बातें कहकर उसकी बुद्धि को विचलित करने लगे। उन्होंने कहा ‘भाई सियार! तू तो मांसाहारी जीव है और भयंकर श्मशान भूमि में निवास करता है, फिर भी पवित्र आचार-विचार से रहना चाहता है- वह विपरीत निश्चय हैं। ‘भैया! अत: तू हमारे ही समान होकर रह। तेरे लिये भोजन तो हम लोग ला दिया करेंगे। तू इस शौचाचार का नियम छोड़कर चुपचाप खा लिया करना। तेरी जाति का जो सदा से भोजन रहा है, वही तेरा भी होना चाहिये। उनकी ऐसी बात सुनकर सियार एकाग्रचित हो मधुर, विस्तृत, युक्तियुक्त तथा कोयल वचनों द्वारा इस प्रकार बोला-बन्धुओं ! अपने बुरे आचरणों से ही हमारी जाति का कोई विश्वास नहीं करता। अच्छे स्वभाव और आचरण से ही कुल की प्रतिष्ठा होती हैं, अत: मैं भी वही कर्म करना चाहता हूँ, जिसमें अपने वंश का यश बढ़े। ‘यदि मेरा निवास श्मशान भूमि में हैं तो इसके लिये मैं जो समाधान देता हूँ, उसको सुनो ! आत्मा ही शुभ कर्मों के लिये प्ररेणा करता हैं। कोई आश्रम ही धर्म का कारण नहीं हुआ करता।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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