सप्तत्रिंशदधिकशततम (137) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 15-24 का हिन्दी अनुवाद
वह जाल मुख से पकड़ने योग्य था; अत: उसकी तांत को मुंह में लेकर वह भी अन्य मछलियों की तरह बंधा हुआ प्रतीत होने लगा। मछली मारों ने उन सब मछलियों को वहां बंधा हुआ ही समझा। तदनन्तर उस जाल को लेकर वे मछलीमार जब दूसरे अगाध जलवाले जलाशय के समीप गये और उन मछलियों को धोने लगे, उसी समय प्रत्युत्पन्नमति मुख में ली हुई जाल की रस्सी को छोड़कर उसके बन्धन से मुक्त हो गया और जल में समा गया। परंतु बुद्धिहीन और आलसी मूर्ख दीर्घसूत्री अचेत होकर मृत्यु को प्राप्त हुआ, जैसे कोई इन्द्रियों के नष्ट होने से हो जाता है। इसी प्रकार जो पुरूष मोहवश अपने सिर पर आये हुए काल को नहीं समझ पाता, वह उस दीर्घसूत्री मत्स्यके समान शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। जो पुरूष यह समझकर कि मैं बड़ा कार्यकुशल हूं, पहले से ही अपने कल्याण का उपाय नही करता, वह पत्युत्पन्नमति मत्स्य के समान प्राणसंशय की स्थिति में पड़ जाता है। जो संकट आने से पहले ही अपने बचाव का उपाय कर लेता है, वह ‘अनागतविधाता‘ और जिसे ठीक समय पर ही आत्मरक्षा का कोई उपाय सूझ जाता है, वह ‘प्रत्युत्पन्नमति’- ये दो ही सुखपूर्वक अपनी उन्नति करते है; परंतु प्रत्येक कार्य में अनावश्यक विलम्ब करने वाला ‘दीर्घसूत्री’ नष्ट हो जाता काष्ठा, कला, मुहूर्त, दिन, रात, लव, मास, पक्ष, छ: ॠतु, संवत्सर और कल्प–इन्हें ‘काल’ कहते है तथा पृथ्वी को ‘देश’ कहा जाता है। इनमें से देश का तो दर्शन होता है, किंतु काल दिखायी नहीं देता है। अभीष्ट मनोरथ की सिद्धि के लिये जिस देश और काल को उपयोगी मानकर उसका विचार किया जाता है, उसको ठीक–ठीक ग्रहण करना चाहिये। ॠषियों ने धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा मोक्षशास्त्र में इन देश और काल को ही कार्य–सिद्धि का प्रधान उपाय बताया है। मनुष्यों की कामना–सिद्धि में भी ये देश और काल ही प्रधान माने गये है। जो पुरूष सोच-समझकर या जान-बूझकर काम करने वाला तथा सतत सावधान रहने वाला है, वह अभीष्ट देश और काल का ठीक–ठीक उपयोग करता है और उनके सहयोग से इच्छानुसार फल प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्ति पर्व के अन्तर्गत आपध्दर्मपर्व में शाकुलापाख्यानविषयक एक सौ सैंतीसवॉ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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