अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टात्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 52-68 का हिन्दी अनुवाद
‘एक उपाय है जिससे तुम इस संकट से छुटकारा पा सकते हो और मैं भी कल्याण का भागी हो सकता हूं। यद्यपि वह उपाय मुझे दुष्कर प्रतीत होता है। ‘मैंने अपनी बुद्धि से अच्छी तरह सोच-विचार करके अपने और तुम्हारे लिये एक उपाय ढूंढ़ निकाला है, जिससे हम दोनों की समान रूप से भलाई होगी। ‘मार्जार! देखो, ये नेवला और उल्लू दोनों पापबुद्धि से यहां ठहरे हुए हैं। मेरी ओर घात लगाये बैठे हैं। जब तक वे मुझपर आक्रमण नहीं करते, तभी तक मैं कुशल से हूं। ‘यह चंचल नेत्रों वाला पापी वृक्ष की डाली पर बैठकर ‘हू हू’ करता मेरी ही ओर घूर रहा है। उससे मुझे बड़ा डर लगता है। ‘साधु पुरूषों में तो सात पग साथ-साथ चलने से ही मित्रता हो जाती है । हम और तुम तो यहां सदासे ही साथ रहते है, अत: तुम मेरे विद्वान् मित्र हो। मैं इतने दिन साथ रहने का अपना मित्रोंचित धर्म अवश्य निभाऊंगा, इसलिये अब तुम्हें कोई भय नहीं है। ‘मार्जार! तुम मेरी सहायता के बिना अपना यह बन्धन नहीं काट सकते। यदि तुम मेरी हिंसा न करो तो मैं तुम्हारे ये सारे बन्धन काट डालूंगा। ‘तुम इस पेड़ के ऊंपर रहते हो और मैं इसकी जड़ में रहता हूं इस प्रकार हम दोनों चिरकाल से इस वृक्ष का आश्रय लेकर रहते हैं, यह बात तो तुम्हें ज्ञात ही है। ‘जिस पर कोई भरोसा नहीं करता तथा जो दूसरे किसी पर स्वयं भी भरोसा नहीं करता, उन दोनों की धीर पुरूष कोई प्रशंसा नहीं करते हैं; क्योंकि उनके मन में सदा उद्वेग भरा रहता हैं। ‘अत: हम लोगों में सदा प्रेम बढे़ तथा नित्य प्रति हमारी संगति बनी रहे। जब कार्य का समय बीत जाता है, उसके बाद विद्वान् पुरूष उसकी प्रशंसा नहीं करते है। ‘बिलाव! हम दोनों के प्रयोजन का जो यह संयोग आ बना है, उसे यथार्थरूप से सुनो। मैं तुम्हारे जीवन की रक्षा चाहता हूं और तुम मेरे जीवन की रक्षा चाहते हो। ‘कोई पुरूष जब लकड़ी के सहारे किसी गहरी एवं विशाल नदी को पार करता है, तब उस लकड़ी को भी किनारे लगा देता है तथा वह लकड़ी भी उसे तारने में सहायक होती है। ‘इसी प्रकार हम दोनों का यह संयोग चिरस्थायी होगा। मैं तुम्हें विपत्ति से पार कर दूंगा और तुम मुझे आपत्ति से बचा लोगे’। इस प्रकार पलित दोनों के लिये हितकर युक्तियुक्त और मानने योग्य बात कहकर उत्तर मिलने के अवसर की प्रतीक्षा करता हुआ बिलाव की ओर देखने लगा। अपने उस शत्रु का यह युक्तियुक्त और मान लेने योग्य सुन्दर भाषण सुनकर बुद्धिमान् बिलाव कुछ बोलने को उद्धत हुआ। उसकी बुद्धि अच्छी थी। वह बोलने की कला में कुशल था। पहले तो उसने चूहे की बात को मन–ही–मन दुहराया; फिर अपनी दशापर दृष्टिपात करके उसने सामनीति से ही उस चूहे की भूरि-भूरि प्रशंसा की। तदनन्तर जिसके आगे के दॉत बड़े तीखे थे और दोनों नेत्र नीलम के समान चमक रहे थे, उस लोमश नामक बिलावने चूहे की ओर किंचिद् दृष्टिपात करके इस प्रकार कहा-‘सौम्य! मैं तुम्हारा अभिनन्दन करता हूं। तुम्हारा कल्याण हो, जो कि तुम मुझे जीवन प्रदान करना चाहते हो। यदि हमारे कल्याण का उपाय जानते हो तो इसे अवश्य करो, कोई अन्यथा विचार मन में न लाओ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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