अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टात्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद
जो स्वार्थसिद्धि का अवसर देखकर शत्रु से तो संधि कर लेता है और मित्रों के साथ विरोध बढा़ लेता है, वह महान् फल प्राप्त कर लेता है। इस विषय में विद्वान् पुरूष वट वृक्ष के आश्रय में रहने वाले एक बिलाव और चूहे के संवाद रूप एक प्राचीन कथानकका दृष्टान्त दिया करते हैं। किसी महान् वन में एक विशाल बरगद का वृक्ष था, जो लता समूहो से आच्छादित तथा भांति-भांति के पक्षियों से सुशोभित था । वह आपनी मोटी–मोटी डालियों से हरा-भरा होने के कारण मेघ के समान दिखायी देता था। उसकी छाया शीतल थी। वह मनोरम वृक्ष वन के समीप होने के कारण बहुत-से सर्पों तथा पशुओं का आश्रय बना हुआ था। उसी की जड़ में सौ दरवाजों का बिल बनाकर पलित नामक एक परम बुद्धिमान् चूहा निवास करता था। उसी बरगद की डाली पर पहले लोमश नामका एक बिलाव भी बडे़ सुख से रहता था। पक्षियों का समूह ही उसका भोजन था। उसी वन में एक चाण्डाल भी घर बनाकर रहता था। वह प्रतिदिन सायंकाल सूर्यास्त हो जाने पर वहां आकर जाल फैला देता और उसकी तांत की डोरियों को यथास्थान लगा घर जाकर मौज से सोता था; फिर सबेरा होने पर वहां आया करता था। रात को उस जाल में प्रतिदिन नाना प्रकार के पशु फंस जाते थे (उन्हीं को लेने के लिये वह सबेरे आता था)। एक दिन अपनी असावधानी के कारण पूर्वोक्त बिलाव भी उस जाल में फंस गया। उस महान् शक्तिशाली और नित्य आततायी शत्रु के फंस जाने पर जब पलित को यह समाचार मालूम हुआ, तब वह उस समय बिलसे बाहर निकलकर सब ओर निर्भय विचरने लगा। उस वन में विश्वस्त होकर विचरतें तथा आहार की खोज करते हुए उस चूहे ने बहुत देर के बाद वह मांस देखा, जो जालपर बिखेरा गया था। चूहा उस जालपर चढ़कर उस मांस को खाने लगा। जाल के ऊपर मांस खाने में लगा हुआ वह चूहा अपने शत्रु के ऊपर मन–ही–मन हंस रहा था। इतने ही में कभी उसकी दृष्टि दूसरी ओर घूम गयी। फिर तो उसने एक दूसरे भयंकर शत्रु को वहां आया हुआ देखा, जो सरकण्डे के फूल के समान भूरे रंग का था। वह धरती में विवर बनाकर उसके भीतर सोया करता था। वह जाति का न्यौला था। उसकी आंखें तांबे के समान दिखायी देती थीं। वह चपल नेवला हरिण के नाम से प्रसिद्ध था और उसी चूहे की गन्ध पाकर बड़ी उतावली के साथ वहां आ पहुंचा था। इधर तो वह नेवला अपना आहार ग्रहण करने के लिए जीभ लपलपाता हुआ ऊपर मुंह किये पृथ्वी पर खड़ा था और दूसरी ओर बरगद की शाखा पर बैठा हुआ दूसरा ही शत्रु दिखायी दिया, जो वृक्ष के खोंखले में निवास करता था। वह चन्द्रक नाम से प्रसिद्ध उल्लू था। उसकी चोंच बड़ी तीखी थी। वह रात में विचरने वाला पक्षी था। न्यौले और उल्लू–दोनों का लक्ष्य बने हुए उस चूहे को बड़ा भय हुआ। अब उसे इस प्रकार चिन्ता होने लगी- ‘अहो! इस कष्टदायिनि विपतिमें मृत्यु निकट आकर खड़ी है। चारों ओर से भय उत्पन्न हो गया है। ऐसी अवस्था में अपना हित चाहने वाले प्राणी को किस उपाय का अवलम्बन करना चाहिये?’
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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