एकत्रिंशदधिकशततम (131) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद
- आपतिग्रस्त राजा के कर्तव्य का वर्णन
युधिष्ठिर ने पूछा-भरतनन्दन ! जिसकी सेना और धन-सम्पति क्षीण हो गयी है, जो आलसी हैं, बन्धु-बान्धवों पर अधिक दया रखने के कारण उनके नाश की आश्ंका से जो उन्हें साथ लेकर शत्रु के साथ युद्ध नहीं कर सकता, जो मन्त्री आदि के चरित्र पर संदेह रखता है अथवा जिसका चरित्र स्वयं भी शंकास्पद हैं, जिसकी मन्त्रणा गुप्त नहीं रह सकी है, उसे दूसरे लोगों ने सुन लिया है, जिसके नगर और राष्ट्र को कई भागों में बांटकर शत्रुओं ने अपने अधीन कर लिया है, इसीलिये जिसके पास द्रव्य का भी संग्रह नही रह गया है, दुव्याभाव के कारण ही समादर न पाने से जिसके मित्र साथ छोड़ चुके हैं, मन्त्री भी शत्रुओं द्वारा फोंड़ लिये गये हैं, जिस पर शत्रु दल का आक्रमण हो गया हों, जो दुर्बल होकर बलवान् शत्रु के द्वारा पीड़ित हो और विपति में पड़कर जिसका चित घबरा उठा हो, उसके लिये कौन-सा कार्य शेष रह जाता है?- उसे इस संकट से मुक्त होने के लिये क्या करना चाहिये? भीष्मजी ने कहा- राजन् ! यदि विजय की इच्छा से आक्रमण करने वाला राजा बाहर का हो, उसका आचार-विचार शुद्ध हो तथा वह धर्म और अर्थ के साधन में कुशल हो तो शीघ्रतापूर्वक उसके साथ संधि कर लेनी चाहिये और जो ग्राम तथा नगर अपने पूर्वजो के अधिकार में रहे हों, वे यदि आक्रमणकारी के हाथ में चले गये हों तो उसे मधुर वचनों द्वारा समझा-बुझाकर उसके हाथ से छुड़ाने चेष्टा करें। जो विजय चाहनेवाला शत्रु अधर्मपरायण हो तथा बलवान् होने के साथ ही पापपूर्ण विचार रखता हों, उसकेसाथ अपना कुछ खोकर भी संधि कर लेने को ही इच्छा रखे। अथवा आवश्यकता हो तो अपनी राजधानी को भी छोड़कर बहुत-सा द्रव्य देकर उस विपति से पार हो जाय। यदि वह जीवित रहे तो राजोचित गुण से युक्त होनेपर पुन: धन का उपार्जन कर सकता है। खजाना और सेना का त्याग कर देने से ही जहां विपतियों को पार किया जा सके, ऐसी परिस्थितियों में कौन अर्थ और धर्म का ज्ञाता पुरुष अपनी सबसे अधिक मूल्यवान् वस्तु शरीर का त्याग करेगा? शत्रु का आक्रमण हो जानेपर राजाको सबसे पहले अपने अन्त:पुर की रक्षा की प्रयत्न करना चाहिये। यदि वहां शत्रु का अधिकार हो जाय, तब उधर से अपनी मोह-ममता हटा लेनी चाहिये,क्योंकि शत्रु के अधिकार में गये हुए धन और परिवार पर दया दिखाना किस काम का ? जहां तक सम्भव हो, अपने-आप को किसी तरह भी शत्रु के हाथ में नहीं फंसने देना चाहिये। युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह ! यदि बाहर राष्ट्र और दुर्ग आदि पर आक्रमण करके शत्रु उसे पीड़ा दे रहे हों और भीतर मन्त्री आदि भी कुपितहो,खजाना खाली हो गया हो और राजा का गुप्त रहस्य सबके कानों में पड़ गया हों, तब उसे क्या करना चाहिये ? भीष्मजी ने कहा-राजन् ! उस अवस्था में राजा या तो शीघ्र ही संधि का विचार कर ले अथवा जल्दी-से-जल्दी दु:सह पराक्रम प्रकट करके शत्रु को राज्य से निकार बाहर करे, ऐसा उद्योग करते समय यदि कदाचित् मृत्यु भी हो जाय तो वह परलोक में मंगलकारी होती है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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