चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम (144) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
- कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान तथा पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा
भीष्मजी कहते हैं- राजन्! उस वृक्ष की शाखा पर बहुत दिनों से एक कबूतर अपने सुहृदों के साथ निवास करता था। उसके शरीर के रोएं चितकबरे थे। उसकी पत्नी सबेरे से ही चारा चुगने के लिये गयी थी, जो लौटकर नहीं आयी। अब रात हुई देख वह कबूतर उसके लिये बहुत संतप्त होने लगा। कबूतर दुखी होकर इस प्रकार विलाप करने लगा- ‘अहो! आज बड़ी भारी आंधी और वर्षा हुई है; किंतु अब तक मेरी प्यारी भार्या लौटकर नहीं आयी। ऐसा कौन–सा कारण हो गया, जिससे वह अभी तक नहीं लौट सकी है। ‘क्या इस वन में मेरी प्रिया कुशल से होगी ? उसके बिना आज मेरा यह घर–यह घोंसला सूना लग रहा है। ‘पुत्र, पौत्र, पतोहू तथा अन्य भरण-पोषण के योग्य कुटुम्बीजनों से भरा होने पर भी गृहस्थ का घर उसकी पत्नी के बिना सूना ही रहता है। ‘वास्तव में घर को घर नहीं कहते, घरवाली का ही नाम घर है। घरवाली के बिना जो घर होता है, उसे जंगल के समान ही माना गया है। ‘जिसके नेत्रों के प्रान्तभाग कुछ-कुछ लाल हैं, अंग चितकबरे हैं और स्वर में अद्भूत मिठास भरा है, वह मेरी प्राणवल्लभा यदि आज नहीं आ रही है तो मुझे इस जीवन से क्या प्रयोजन है ? ‘वह उत्तम व्रत का पालन करने वाली पतिव्रता थी, इसलिये मुझे भोजन कराये बिना भोजन नहीं करती, नहलाये बिना स्नान नहीं करती, मुझे बैठाये बिना बैठती नहीं तथा मेरे सो जाने पर ही शयन करती थी। ‘मेरे प्रसन्न रहने पर हर्ष से खिल उठती थी और मेरे दुखी होने पर वह स्वयं भी दु:ख में डूब जाती थी। जब मैं बाहर जाने लगता तो उसके मुखपर दीनता छा जाती थी और जब कभी मुझे क्रोध आता, तब मीठी-मीठी बातें करके शान्त कर देती थी। ‘वह बड़ी पतिव्रता थी। पति के सिवा दूसरी कोई उसकी गति नहीं थी। वह सदा ही पति के प्रिय एवं हित में तत्पर रहती थी। जिसको ऐसी पत्नी प्राप्त हुई हो, वह पुरूष इस पृथ्वी पर धन्य है। ‘वह तपस्विनी यह जानती है कि मैं थका, मांदा और भूख से पीड़ित हूं, सो भी न जाने क्यों नहीं आ रही है ? मेरे प्रति उसका अत्यन्त अनुराग है, उसकी बुदि स्थिर है, वह यशस्विनी भार्या मेरे प्रति स्नेह रखने वाली तथा मेरी परम भक्त है। ‘वृक्ष के नीचे भी जिसकी पत्नी साथ हो, उसके लिये वही घर है और बहुत बड़ी अट्टालिका भी यदि स्त्री से रहित है तो वह निश्चय ही दुर्गम गहन वन के समान है। ‘पूरूष के धर्म, अर्थ और काम के अवसरों पर उसकी पत्नी ही उसकी मुख्य सहायिका होती है। परदेश जाने पर भी वही उसके लिये विश्वसनीय मित्र का काम करती है। ‘पुरूष की प्रधान सम्पत्ति उसकी पत्नी ही कही जाती है। इस लोक में जो असहाय है, उसे भी लोक-यात्रा में सहायता देने वाली उसकी पत्नी ही है। ‘जो पुरूष रोग से पीड़ित हो और बहुत दिनों से विपत्ति में फंसा हो, उस पीड़ित मनुष्य के लिये भी स्त्री के समान दूसरी कोई ओषधि नहीं है। ‘संसार में स्त्री के समान कोई बन्धु नहीं है, स्त्री के समान कोई आश्रय नहीं है और स्त्री के समान धर्मसंग्रह में सहायक भी दूसरा कोई नहीं है। ‘जिसके घर में साघ्वी और प्रिय वचन बोलने-वाली भार्या नहीं है, उसे तो वन में चला जाना चाहिये; क्योंकि उसके लिये जैसा घर है, वैसा ही वन’।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्व में पत्नी की प्रशंसाविषयक एक सौ चौवालिसवां अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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