महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 145 श्लोक 1-14
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पन्चचत्वारिंशदधिेकशततम (145) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
- कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिये प्रार्थना
भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! इस तरह विलाप करते हुए कबूतर का वह करूणायुक्त वचन सुनकर बहेलिये के कैद में पड़ी हुई कबूतरी ने कहा। कबूतरी बोली- अहो! मेरा बड़ा सौभाग्य है कि मेरे प्रियतम पतिदेव इस प्रकार मेरे गुणों का, वे मुझमें हों या न हों, गान कर रहे हैं। उस स्त्री को स्त्री ही नहीं समझना चाहिये, जिसका पति उससे संतुष्ट नहीं रहता है। पति के संतुष्ट रहने से स्त्रियों पर सम्पूर्ण देवता संतुष्ट रहते हैं। अग्नि को साक्षी बनाकर स्त्री का जिसके साथ विवाह हो गया, वही उसका पति है और वही उसके लिये परम देवता है। जिसका पति संतुष्ट नहीं रहता, वह नारी दावानल से दग्ध हुई पुष्पगुच्छों सहित लता के समान भस्म हो जाती है। ऐसा सोचकर दु:ख से पीड़ित हो व्याध कैद में पड़ी हुई कबूतरी ने अपने दु:खित पति से उस समय इस प्रकार कहा-‘प्राणनाथ! मैं आपके कल्याण की बात बता रही हूं, उसे सुनकर आप वैसा ही कीजिये। इस समय विशेष प्रयत्न करके एक शरणागत प्राणी की रक्षा कीजिये। ‘यह व्याध आपके निवास-स्थान पर आकर सर्दी और भूख से पीड़ित होकर सो रहा है। आप इसकी यथोचित सेवा कीजिये। ‘जो कोई पुरूष ब्राह्मण की, लोकमाता गाय की तथा शरणागत की हत्या करता है, उन तीनों को समान रूप से पातक लगता है। ‘भगवान ने जाति धर्म के अनुसार हमारी कापोतीवृति बना दी है। आप–जैसे मनस्वी पुरूष को सदा ही उस वृति का पालन करना उचित है । ‘जो गृहस्थ यथाशक्ति अपने धर्म का पालन करता है, वह मरने के पश्चात् अक्षय लोकों में जाता है, ऐसा हमने सुन रखा है। ‘पक्षिप्रवर! आप अब संतानवान् और पुत्रवान हो चुके हैं। अत: आप अपनी देह पर दया न करके धर्म और अर्थ पर ही दृष्टि रखते हुए इस बहेलिये का ऐसा सत्कार करें, जिससे इसका मन प्रसन्न हो जाय। ‘विहंगम! आप मेरे लिये संताप न करें। आपको अपनी शरीर यात्रा का निर्वाह करने के लिये दूसरी स्त्री मिल जायेगी। इस प्रकार पिंजडे़ में पड़ी हुई वह तपस्विनी कबूतरी पति से यह बात कहकर अत्यन्त दुखी हो पति के मुंह की ओर देखने लगी ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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