महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 163 श्लोक 17-23
त्रिषष्टयधिकशततम (163) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
मन में कामना होने से तथा दूसरे प्राणियों की हंसी–खुशी देखने से ईर्ष्या की उत्पति होती है तथा विवेकशील बुद्धि के द्वारा उसका नाश होता है। राजन्! समाज से बहिष्कृत हुए नीच मनुष्यों के द्वेषपूर्ण तथा अप्रामाणिक वचनों की सुनकर भ्रम में पड़ जाने से निंदा करने की आदत होती है; परंतु श्रेष्ठ पुरूषों को देखने से वह शांत हो जाती है। जो लोग अपनी बुराई करने वाले बलवान् मनुष्य से बदला लेने में असमर्थ होते हैं, उनके हृदय में तीव्र असूया ( दोषदर्शन की प्रवृति) पैदा होती है, परंतु दया का भाव जाग्रत् होने से उसकी निवृति हो जाती है। सदा कृपण मनुष्यों को देखने से अपने में भी दैन्यभव–कंजूसी का भाव पैदा होता है; धर्मनिष्ठ पुरूषों के उदार भाव को जान लेने पर वह कंजूसी का भाव नष्ट हो जाता है। प्राणियों का भोगों के प्रति जो लोभ देखा जाता है, वह अज्ञान के ही कारण है। भोगों की क्षणभंगुरता को देखने और जानने से उसकी निवृति हो जाती है। कहते हैं, ये तेरहों दोष शांति धारण करने से जीत लिये जाते हैं । धृतराष्ट्र के पुत्रों में से सभी दोष मौजूद थे और तुम सत्य को ग्रहण करना चाहते हो; इसलिये तुमने श्रेष्ठ पुरूषों के सेवन से इन सब पर विजय प्राप्त कर ली।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्व के अन्तर्गत आपद्धर्मपर्व में लोभनिरूपणविषयक एक सौ तिरसठवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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