महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 165 श्लोक 1-13
पञ्चषष्टयधिकशततम (165) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
नाना प्रकार के पापों और उनके प्रायश्चितों का वर्णन
भीष्मजी कहते हैं-राजन् सम्पूर्ण वेदों और उननिषदों का पांरगत विद्वान ब्राह्मण यदि यज्ञ करने वाला हो तथा उसका धन चोर चुरा ले गये हों तो राजा का कर्तव्य है कि वह उसे आचार्य की दक्षिणा देने, पितरों का श्राद करने तथा वेद–शास्त्रों का स्वाध्याय करने के लिये धन दे। भरतनन्दन! ये श्रेष्ठ ब्राहामण प्राय: धर्म के लिये धन की भिक्षा मॉगते देखे गये हैं। इन्हें दान और विघाध्ययन के लिये धन देना चाहिये । भरतश्रेष्ठ! इससे भिन्न परिस्थिती में ब्राह्मण को केवल दक्षिणा देनी चाहिये और ब्राह्मणेतर मनुष्यों को भी यज्ञवेदी से बाहर कच्चा अन्न देने का विधान है। राजा को चाहिये कि वह ब्राह्माणों को उनकी योग्यता के अनुसार सब प्रकार के रत्नों का दान करे; क्योंकि ब्राह्मण ही वेद एवं बहुसंख्यक दक्षिणावाले यज्ञरूप हैं। अपनी सम्पति के अनुसार समस्त कार्यों का आयोजन करने वाले वे ब्राह्मण सदा आपस में मिलकर गुण युक्त यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। जिस ब्राह्मण के पास अपने पालनीय कुटुम्बीजनों के भरण–पोषण के लिये तीन वर्ष तक उपभोग में आने लायक प्रर्याप्त धन हो अथवा उससे भी अधिक वैभव विधमान् हो, वही सोमपान का अधिकारी है–उसे ही सोमयाग का अनुष्ठान करना चाहिये। यदि धर्मात्मा राजा के रहते हुए किसी यज्ञ कर्ता का, विशेषत: ब्राह्मण का यज्ञ धन के बिना अधूरा रह जाय-उसके एक अंश की पूर्ति शेष रह जाय तो राजा को चाहिये कि उसके राज्य में जो बहुत पशुओं तथा वैभव से सम्पन्न वैश्य हो, यदि वह यज्ञ तथा सोमयाग से रहित हो तो उसके कुटुम्ब से उस धन को यज्ञ के लिये ले ले। किंतु राजा अपनी इच्छा के अनुसार शूद्र के घर से थोडा–सा भी धन न ले आवे; क्योंकि यज्ञों में शूद्र का किंचिन्मात्र भी अधिकार नहीं है। जिस वैश्य के पास एक सौ गौएं हों और वह अग्निहोत्र न करता हो, तथा जिसके पास एक हजार गौएं हों और वह यज्ञ न करता हो, उन दोनों के कुटुम्बों से राजा बिना विचारे ही धन उठा लावे। जो धन रहते हुए उसका दान न करते हों, ऐसे लोगों के इस दोष को विख्यात करके राजा सदा धर्म के लिये उनका धन ले ले, ऐसा आचरण करने वाले राजा को सम्पूर्ण धर्म की प्राप्ति होती है। युधिष्ठिर! इसी प्रकार मैं अन्न के विषय में जो बात रहा हूं, उसे सुनो। यदि ब्राह्मण अन्नाभाव के कारण लगातार छ: समय तक उपवास कर जाय तो उस अवस्था में वह किसी निकृष्ट कर्म करने वाले मनुष्य के घर से उतने धन का अपहरण कर सकता है, जिससे उसके एक दिन का भोजन चल जाय और दूसरे दिन के लिये कुछ बाकी न रहे। खलिहान से, खेत से, बगीचे से अथवा जहां से भी अन्न मिल सके, वहीं से वह भोजनमात्र के लिये अन्न उठा लावे और उसके बाद राजा पूछे या न पूछे उसके पास जाकर अपनी वह बात उसे कह दे। उस दशा में धर्मज्ञ राजा धर्म के अनुसार उसे दण्ड न दे; क्योंकि क्षत्रिय राजा की नादानी से ही ब्राह्मण को भूख का कष्ट उठाना पड़ता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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