महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 166 श्लोक 1-22

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षट्षष्‍टयधिकशततम (166) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षट्षष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति की परम्परा की महिमा का वर्णन

वैशम्‍पायनजी कहते हैं–जनमेजय! कथाप्रसग्‍ड़की समाप्ति के समय अवसर पाकर खड्गयुद्धविशारद नकुल ने बाणशय्यापर सोये हुए पितामह भीष्‍म से इस प्रकार प्रश्‍न किया। नकुल बोले-धर्मज्ञ पितामह! यद्यपि इस जगत में धनुष अत्यन्त श्रेष्‍ठ अस्त्र समझा जाता है, तथापि मुझे तो अत्यन्त तीखा खड्ग ही अच्छा जान पड़ता है। राजन्! जब धनुष टूट जाय और घोडे़ भी नष्‍ट हो जायं तब भी युद्धस्थल में खड्ग के द्वारा अपने शरीर की भलीभॅांति रक्षा की जा सकती है। एक ही खड्गधारी वीर धनुष, गदा और शक्ति धारण करने वाले बहुत-से योद्धाओं को बाधा देने में समर्थ है। पृथ्‍वीनाथ! इस विषय में मेरे मन में संशय और अत्यन्त कोतूहल भी हो रहा है कि सम्पूर्ण युद्धों में कौन–सा आयुध श्रेष्‍ठ है? पितामह! खड्ग की उत्पत्ति कैसे और किस प्रयोजन के लिये हुई? किसने इसे उत्पन्न किया? खड्गयुद्ध का प्रथम आचार्य कौन था? यह सब मुझे बताइये। वैशम्पायनजी कहते हैं-भरतनन्दन! जनमेजय! बुद्धिमान् माद्रीपुत्र नकुल की वह बात कौशल युक्‍त तो थी ही, सूक्ष्‍म तथा विचित्र अर्थ से भी सम्पन्न थी। उसे सुनकर बाणशय्यापर सोये हुए धनुर्वेद के पारंगत विद्वान् धर्मज्ञ भीष्‍म ने शिक्षाप्राप्‍त महामनस्वी द्रोणशिष्‍य नकुल को सुन्दर स्वर एवं वर्णों से युक्त वाणी में इस प्रकार उत्‍तर देना आरम्भ किया। भीष्‍मजी ने कहा-माद्रीनन्दन! तुम जो यह प्रश्‍न कर रहे हो, इसका तत्‍त्‍व सुनो। मैं तो खून से लथपथ हो गेरूधातु से रंगे हुए पर्वत के समान पडा़ हुआ था। तुमने यह प्रश्‍न करके मुझे जगा दिया। तात! पूर्वकाल में यह सम्पूर्ण जगत् जल के एकमात्र महासागर के रूप में था। उस समय इसमें कम्पन नहीं था। आ‍काश का पता नही था। भूतल का कहीं नाम भी नहीं था। सब कुछ अन्धकार आवृत था। शब्‍द और स्पर्श का भी अनुभव नहीं होता था। वह एकार्णव देखने में बडा गम्भीर था। उसकी कहीं सीमा नहीं थी, उसी में पितामह ब्रह्मजी का प्रादुर्भाव हुआ। उन शक्तिशाली पितामह ने वायु, अग्नि और सूर्य की सृष्टि की। आकाश, ऊपर, नीचे, भूमि तथा राक्षससमूह की भी रचना की। चन्द्रमा तथा तारोंसहित आकाश, नक्षत्र, ग्रह, संवत्सर, ॠतु, मास, पक्ष, लव और क्षणों की सृष्टि भी उन्होंने ही की। तदनन्तर भगवान् ब्रह्म ने लौकि‍क शरीर धारण करके मुनिवर मरीचि, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वसिष्‍ठ, अङिग्‍रा तथा स्वभाव एवं ऐश्‍वर्य से सम्पन्न रूद्र–इन तेजस्वी पुत्रों को उत्पन्न किया।। प्रचेताओं के पुत्र दक्षने साठ कन्याओं को जन्म दिया। उन सब‍को प्रजा की उत्पत्ति के लिये ब्रह्मर्षियों ने पत्नीरूप में प्राप्‍त किया। उन्हीं कन्याओं से समस्त प्राणी, देवता, पितर, गन्धर्व, अप्सरा, नाना प्रकार के राक्षस, पशु, पक्षी, मत्स्य, वानर, बडे़–बडे़ नाग, जल और स्थल में विचरने वाले सब प्रकार के पक्षिगण, उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्‍डज और जरायुज प्राणी उत्पन्न हुए। तात! इस प्रकार सम्पूर्ण स्थावर-जड़ग्‍म जगत् उत्पन्न हुआ। सर्वलोकपितामह ब्रह्मा ने इन समस्त प्राणियों की सृष्टि करके उनके ऊपर वेदोक्‍त सनातनधर्म के पालन का भार रखा। आचार्य और पुरोहितगणों सहित देवता, आदित्य, वसुगण, रूद्रगण, साध्‍यगण, मरूद्गण तथा अश्विनी कुमार-ये सभी उस सनातन धर्म में प्रतिष्ठित हुए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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