महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 176 श्लोक 1-15
षट्सप्तत्यधिकशततम (176) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक ब्राह्माण का उपदेश
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! धनी और निर्धन दोनों स्वतन्त्रतापूर्वक व्यवहार करते हैं, फिर उन्हें किस रूप में और कैसे सुख और दुख की प्राप्ति होती है? भीष्मजी ने कहा- युधिष्ठिर! इस विषय में विद्वान पुरूष इस पुरातन इतिहास देते हैं, जिसे परम शान्त जीवन्मुक्त शम्पाक ने कहा था। पहले की बात है, फटे–पुराने वस्त्रों एवं अपनी दुष्टा स्त्री के और भूख के कारण अत्यन्त कष्ट पाने वाले एक त्यागी ब्राह्माण ने जिसका नाम शम्पाक था, मुझसे इस प्रकार कहा- ‘इस संसार में जो भी मनुष्य उत्पन्न होता है (वह धनी हो या निर्धन) उसे जन्म से ही नाना प्रकार के सुख–दुख प्राप्त होने लगते हैं। ‘विधाता यदि उसे सुख और दुख इन दोनों में से किसी एक के मार्ग पर ले जाय तो वह न तो सुख पाकर प्रसन्न हो और न दुख में पड़कर परितप्त हो। ‘तुम जो कामना रहित होकर भी अपने कल्याण का साधन नहीं कर रहे हो और मन को वश में नहीं कर रहे हो, इसका कारण यही है कि तुमने राज्य का बोझा अपने पर उठा रखा है। ‘यदि तुम सब कुछ त्यागकर किसी वस्तु का संग्रह नहीं रखोगे तो सर्वत्र विचरते हुए सुख का ही अनुभव करोगे, क्योंकि जो अकिंचन होता है- जिसके पास कुछ नहीं रहता है, वह सुख से सोता और जागता है। ‘संसार में अकिंचनता ही सुख है। वही हितकारक, कल्याणकारी और निरापद है। इस मार्ग में किसी प्रकार के शत्रु का भी खटका नहीं है। यह दुर्लभ होने पर भी सुलभ है। ‘मैं तीनों लोकों पर दृष्टि डालकर देखता हूं तो मुझे अकिंचन, शुद्ध एवं सब ओर से वैराग्य सम्पन्न पुरूष के समान दूसरा कोई नहीं दिखायी देता है। ‘मैंने अकिंचनता तथा राज्य को बुद्धि की तराजू पर रखकर तौला तो गुणों में अधिक होने के कारण राज्य से भी अकिेचनता का ही पलड़ा भारी निकला। ‘अकिंचनता तथा राज्य में बडा भारी अन्तर यह है कि धनी राजा सदा इस प्रकार उद्विग्न रहता है, मानो मौत के मुख में पडा़ हुआ हो। ‘परंतु जो मनुष्य धन को त्यागकर उसकी आसक्ति से मुक्त हो गया है और मन में किसी तरह की कामना नहीं रखता, उस पर न अग्नि का जोर चलता है, न अरिष्टकारी ग्रहों का, न मृत्यु उसका कुछ बिगाड़ सकती है, न डाकू और लुटेरे ही। ‘वह सदा दैव–इच्छा के अनुसार विचरता है। बिना बिछौने के भूतल पर सोता है। बांहों की ही तकिया लगाता है और सदा शान्तभाव से रहता है। देवता लोग भी उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। ‘जो धनवान है, वह क्रोध और लोभ के आवेश में आकर अपनी विचार शक्ति को खो बैठता है, टेढी़ आंखों से देखता है, उसका मुंह सुखा रहता है, भौहें चढी़ होती है और वह पाप में ही मग्न रहा करता है। ‘क्रोध के कारण वह ओठ चबाता रहता है और अत्यन्त कठोर वचन बोलता है। ऐसा मनुष्य सारी पृथ्वी का राज्य ही दे देना चाहता हो, तो भी उसकी ओर कौन देखना चाहेगा?
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|