महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 180 श्लोक 1-15
अशीत्यधिकशततम (180) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
सद्बुद्धिका आश्रय लेकर आत्महत्यादि पापकर्मसे निवृत्त होने के संबंध काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! अब मेरे प्रश्न के अनुसार मु्झे यह बताइये कि मनुष्य को बंधुजन, कर्म, धन अथवा बुद्धि- इनमें से किसका आश्रय लेना चाहिये? भीष्म जी ने कहा- राजन्! प्राणियों का प्रधान आश्रय बुद्धि है। बुद्धि ही उनका सबसे बड़ा लाभ है। संसार में बुद्धि ही उनका कल्याण करने वाली है। सत्पुरूषों के मत में बुद्धि ही स्वर्ग है। राजा बलि ने अपना ऐश्वर्य क्षीण हो जाने पर पुन: उसे बुद्धि बल से ही पाया था। प्रह्लाद, नमुचि और मंकिने भी बुद्धिबल से ही अपना-अपना अर्थ सिद्ध किया था। संसार में बुद्धि से बढकर और क्या है? युधिष्ठिर! इस विषय में विज्ञ पुरूष इन्द्र और काश्यप के संवादरूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, उसे सुनो। कहते है, पूर्वकाल में धन के अभिमान से मतवाले हुए किसी धनी वैश्यने कठोर व्रत का पालन करने वाले तपस्वी ॠषिकुमार काश्यप को अपने रथ से धक्के देकर गिरा दिया। वे पीड़ा से कराहकर गिर पड़े और कुपित होकर आत्महत्या के लिये उघत हो इस प्रकार बोले- ‘ अब मैं प्राण दे दूंगा, क्योंकि इस संसार में निर्धन मनुष्य का जीवन व्यर्थ है। उन्हे इस प्रकार मरने की इच्छज्ञ लेकर बैठे मूर्च्छा से अचेत हो कुछ न बोलते और मन–ही–मन धन के लिये ललचाते देखकर इन्द्रदेव सियार का रूप धारण करके आये और उनसे इस प्रकार कहने लगे- मुने! सभी प्राणी सब प्रकार से मनुष्ययोनि पाने की इच्छा रखते हैं। उसमें भी ब्राह्मणत्व की प्रशंसा तो सभी लोग करते है। ‘काश्यप! आप तो मनुष्य है, ब्राह्मण है और श्रोत्रिय भी है। ऐसा परम दुर्लभ शरीर पाकर आपको उसमें दोषदृष्टि करके स्वयं ही मरने के लिये उघत होना उचित नहीं है। ‘संसार में जितने लाभ हैं, वे सभी अभिमानपूर्ण हैं, ऐसा सत्य अर्थ का प्रतिपादन करने वाली श्रुति का कथन है ( अर्थात् मैंने यह लाभ अपने पुरूषार्थ से किया है, ऐसा अहंकार प्राय: सभी मनुष्य कर लेते है।) आपका स्वरूप तो संतोष रखने के योग्य है। आप लोभवश ही उसकी अवहेलना करते है । ‘अहो! जिनके पास भगवान् के दिये हुए हाथ हैं, उनको तो मैं कृतार्थ मानता हूं। इस जगत् में जिनके पास एक से अधिक हाथ हैं, उनके–जैसा सौभाग्य पाने की इच्छा मुझे बारंबार होती है। ‘जैसे आपके मन धन की लालसा है, उसी प्रकार हम पशुओं को हाथ वाले मनुष्यों से हाथ पाने की अभिलाषा रहती है। हमारी दृष्टि में हाथ मिलने से अधिक दूसरा कोई लाभ नहीं। ‘ब्रह्मन्! हमारे शरीर में कांटे गड़ जाते है, परंतु हाथ न होने से हम उन्हें निकाल नहीं पाते है। जो छोटे–बड़े जीव–जंतु हमारे शरीर में डंसते हैं, उनको भी हम हटा नहीं सकते। ‘परंतु जिनके पास भगवान् के दिये हुए दस अंगुलियों से युक्त दो हाथ हैं, वे अपने अंगों से उन कीड़ों को हटाते या नष्ट कर देते हैं, जो उन्हें डंसते हैं। ‘ वे वर्षा, सर्दी और धूप से अपनी रक्षा कर लेते हैं, कपड़ा पहनते हैं, सुखपूर्वक अन्न खाते हैं, शय्या बिछाकर सोते है तथा एकांत स्थान का उपभोग करते है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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