महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 180 श्लोक 16-33

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अशीत्‍यधिकशततम (180) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अशीत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद

‘हाथ वाले मनुष्‍य बैलों से जुती हुई गाड़ी पर चढ़कर उन्‍हें हांकते है और जगत् में उनका यथेष्‍ट उपभोग करते है तथा हाथ से ही अनेक प्रकार के उपाय करके लोगों को अपने वश में कर लेते हैं। ‘मुने ! जो दुःख बिना हाथ के दीन, दुर्बल और बेजबान प्राणी सहते हैं, सौभाग्यवश वे तो आपको नहीं सहने पड़ते हैं ‘आपका बड़ा भाग्‍य है कि आप गीदड़, कीड़ा, चूहा, सांप, मेढ़क या किसी दूसरी पापयोनि में नहीं उत्‍पन्‍न हुए। ‘काश्‍यप! आपकों इतने ही लाभ से संतुष्‍ट रहना चाहिये । इससे अधिक लाभ क्‍या होगा कि आप सभी प्राणियों में श्रेष्‍ठ ब्राह्मण हैं। ‘मुझे ये कीड़े खा रहे है, जिन्‍हें निकाल फेंकने की शक्ति मुझमें नहीं है। हाथ न होने के कारण होने वाली मेरी इस दुर्दशा को आप प्रत्‍यक्ष देख लें। ‘आत्‍महत्‍या करना पाप है, यह सोचकर ही मैं अपने इस शरीर का परित्‍याग नहीं करता हूं। मुझे भय है कि मैं इससे भी बढ़कर किसी दूसरी पापयोनि में न गिर जाऊं। ‘यघपि मैं इस समय जिस श्रृगालयोनि में हूं, इसकी गणना भी पापयोनियों में ही है, तथापि दूसरी बहुत–सी पापयोनियां इससे भी नीची श्रेणी की हैं। ‘कुछ देवता आदि जाति से ही सुखी हैं, दूसरे पशु आदि जाति से ही अत्यन्त दु:खी है, परंतु मैं कही किसी को ऐसा नहीं देखता, जिसको सर्वथा सुख ही सुख हो। ‘मनुष्‍य धनी हो जाने पर राज्‍य पाना चाहते हैं, राज्‍य से देवत्व की इच्‍छा करते हैं और देवत्‍व फिर इन्‍द्रपद प्राप्‍त करना चाहते हैं। ‘यदि आप धनी हो जायं तो भी ब्राह्मण होने के कारण राजा नहीं हो सकते। यदि कदाचित् राजा हो जायं तो देवता नहीं हो सकता । देवता और इन्‍द्र का पद भी पा जायं तो भी आप उतने से संतुष्‍ट नहीं रह सकेंगे। ‘प्रिय वस्‍तुओं का लाभ होने से कभी तृप्ति नहीं होती। बढ़ती हुई तृष्‍णा जल से नहीं बुझती। ईंधन पाकर जलने वाली आग के समान वह और भी प्रज्‍वलित होती जाती है। ‘तुम्‍हारे भीतर शोक भी है और हर्ष भी। साथ ही सुख और दु:ख दोनों है, फिर शोक करना किस काम का? ‘बुद्धि और इन्द्रियां ही समस्‍त कामनाओं और कर्मों की मूल है। उन्‍हें पिजड़े में बंद पक्षियों की तरह अपने काबू में रखा जाय तो कोई भय नहीं है। ‘मनुष्‍य को दूसरे सिर और तीसरे हाथ के कटने का कभी भय नहीं होता हैं। जो वास्‍तव में है ही नहीं, उसके कारण भय भी नहीं होता है। ‘जो किसी विषय का रस नहीं जानता, उसके मन में कभी उसकी कामना भी नहीं होती। स्‍पर्श से, दर्शन से अ‍थवा श्रवण से भी कामना का उदय होता है। ‘वारूणी मदिरा तथा चिड़िया- इन दोनों का आप कभी स्‍मरण नहीं करते होगें, क्‍योकि इनको आपने नहीं खाया हैं, परंतु (जो तामसी मनुष्‍य इनको खाते हैं उनके लिये) कहीं और कोई भी भक्ष्‍य पदार्थ उन दोनों से बढ़कर नहीं है। ‘प्राणियों में किसी के भी अन्‍यान्‍य भक्ष्‍य पदार्थ हैं, जिनका तुमने पहले उपभेाग नहीं किया है, उन भोजनों की स्‍मृति तुमको कभी नहीं होगी। ‘मैं ऐसा मानता हूं कि किसी वस्‍तु को न खाने, न छुने और न देखने का नियम लेना ही पुरूष के लिये कल्‍याणकारी है, इसमें संशय नहीं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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