महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 180 श्लोक 34-54
अशीत्यधिकशततम (180) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
‘जिनके दोनों हाथ बने हुए हैं, निस्संदेह वे ही बलवान् और धनवान् हैं। मनुष्यों को तो मनुष्यों ने ही दास बना रखा है। ‘कितने ही मनुष्य बारंबार वध और बन्धन के क्लेश भोगते रहते हैं, परंतु वे भी (आत्महत्या करके प्राण नहीं देते, बल्कि) आपस में क्रीड़ा करते, आनन्दित होते और हंसते हैं। ‘दूसरे बहुत-से बाहुबल से सम्पन्न विद्वान् और मनस्वी मनुष्य दीन, निन्दित एवं पापपूर्ण वृत्ति से जीतिका चलाते हैं। वे दूसरी वृत्ति का सेवन करने के लिये भी उत्साह रखते है; परंतु अपने कर्म के अनुसार जो नियत है, वैसा ही भविष्य में होता है। ‘भंगी अथवा चाण्डाल भी अपने शरीर को त्यागना नहीं चाहता है, वह अपनी उसी योनि से संतुष्ट रहता है। देखिय, भगवान की कैसी माया है ? ‘काश्यप! कुछ मनुष्य लूले और लंगड़े हैं, कुछ लोगों को लकवा मार गया है, बहुत–से मनुष्य निरंतर रोगी ही रहते हैं। उन सबकी ओर देखकर यह कहना पड़ता है कि आप अपनी योनि के अनुसार नीरोग और परिपूर्ण अंगवाले हैं। आपको मानवशरीर का लाभ मिल चुका है। ‘ब्राह्मणदेव! यदि आपका शरीर निर्भय और नीरोग है, आपके सारे अंग ठीक हैं, किसी में कोई विकार नहीं आया है तो लोक में कोई भी आपको धिक्कार नहीं सकता- आप धिक्कार के पात्र नहीं हो सकते । ‘यदि आपपर जातिच्युत करने वाला कोई सच्चा कलंक लगा हो तो भी आपको प्राणत्याग का विचार नहीं करना चाहिये । ब्राह्मर्षे! आप धर्मपालन के लिये उठ खड़े होइये। ‘ब्रह्मन्! यदि आप मेरी बात सुनेंगे और उस पर श्रद्धा करेंगे तो आपको वेदोक्त धर्म के पालन का ही मुख्य फल प्राप्त होगा। ‘आप सावधान होकर स्वाध्याय, अग्निहोत्र, सत्य, इन्द्रियसंयम तथा दान धर्म का पालन कीजिये। किसी के साथ स्पर्धा न कीजिये। ‘जो ब्राह्मण स्वाध्याय में लगे रहते हैं तथा यज्ञ करते और कराते हैं, वे किसी प्रकार की चिंता क्यों करेंगे और कोई आत्महत्या आदि बुरी बात भी क्यों सोचेंगे? वे यदि चाहें तो यज्ञादि के द्वारा विहार करते हुए महान् सुख पा सकते हैं। ‘जो उत्तम नक्षत्र, उत्तम तिथि और उत्तम मुहूर्त में पैदा हुए हैं, वे अपनी शक्ति के अनुसार यज्ञ एवं दान करते और न्यायानुकूल संतानोत्पादन की चेष्टा भी करते हैं। ‘दूसरे जो लोग आसुर नक्षत्र, दूषित तिथि तथा अशुभ मुहूर्त में उत्पन्न होते हैं , वे यज्ञ तथा संतान से रहित होकर आसूरी योनि में पड़ते हैं। ‘पूर्वजन्म में मैं एक पण्डित था और कुतर्क का आश्रय लेकर वेदों की निंदा करता था। प्रत्यक्ष के आधार पर अनुमान को प्रधानता देने वाली थोथी तर्क विघापर ही उस समय मेरा अधिक अनुराग था। ‘मैं सभाओं में जाकर तर्क और युक्तिकी बातें ही अधिक बोलता। जहां दूसरे ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक वेद–वाक्योंपर विचार करते, वहां मैं बलपूर्वक आक्रमण करके उन्हें खरी –खोटी सुना देता और स्वयं ही अपना तर्कवाद बका करता था। ‘मैं नास्तिक, सब पर संदेह करने वाला तथा मूर्ख होकर भी अपने को पण्डित मानने वाला था। विप्रवर! यह श्रृगालयोनि मेरे उसी कुकर्म का फल है। अब मैं सैकड़ों दिन–रातों तक साधन करके भी क्या कभी वह उपाय कर सकता हूं, जिससे आज सियार की योनि में पड़ा हुआ मैं पुन: मनुष्यमानि पा सकूं। ‘जिस मनुष्य योनि में मैं संतुष्ट और सावधान रहकर यज्ञ, दान और तपस्या में लगा रह सकूं, जिसमें मैं जानने योग्य वस्तु को जान लूं और त्यागने योग्य वस्तु का त्याग कर दूं’। यह सुनकर काश्यप मुनि आश्चर्य से चकित होकर खड़े हो गये और बोले- ‘अहो! तुम तो बड़े कुशल और बुद्धिमान हो ‘। ऐसा कहकर ब्रह्मर्षि ने उसकी ओर ज्ञानदृष्टि से देखा । तब उसके रूप में इन्हें देवदेव शचीपति इन्द्र दिखायी दिये। तदनन्तर काश्यप ने इन्द्रदेव का पूजन किया और उनकी आज्ञा लेकर वे पुन: अपने घर को लौट गये।
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