महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 184 श्लोक 16-34
चतुरशीत्यधिकशततम (184) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
जैसे मनुष्य कमल की नाल मुंह में लगाकर उसके द्वारा ऊपर को जल खींचता है, उसी तरह वायु की सहायता से युक्त वृक्ष अपनी जड़ों द्वारा ऊपर की ओर पानी खींचता है। वृक्ष कट जाने पर उनमें नया अंकुर उत्पन्न हो जाता है और वे सुख–दु:ख को ग्रहण करते हैं। इससे मैं देखता हूं कि वृक्षों में जीव भी हैं। वे अचेतन नहीं हैं। वृक्ष अपनी जड़ से जो जल खींचता है, उसे उसके अंदर रहनेवाली वायु और अग्नि पचाती है। आहार का परिपाक होने से वृक्ष में स्निग्धता आती है और वे बढ़ते हैं। समस्त जंगलों के शरीरों में भी पांच भूत रहते हैं; परंतु वहां उनके स्वरूप में भेद होता है। उन पांच भूतों के सहयोग से ही शरीर चेष्टाशील होता है। शरीर में त्वचा, मांस, हड्डी, मज्जा और स्नायु–इन पांच वस्तुओं का समुदाय पृथ्वीमय है। तेज, क्रोध, नेत्र, ऊष्मा और जठरानल-ये पांच वस्तुएं देहधारियों के शरीर में अग्निमय हैं। कान, नासिका, मुख, हृदय और उदर प्राणियों के शरीर में ये पांच धातुमय खोखलापन आकाश से उत्पन्न हुए हैं- कफ, पित्त, स्वेद, चर्बी और रूधिर- ये प्राणियों के शरीर में रहने वाली पांच गीली वस्तुएं जलरूप हैं। प्राण से प्राणी चलने–फिरने का काम करता है, व्यान से व्यायाम (बलसाध्य उद्यम) करता है, अपान वायु ऊपर से नीचे की ओर जाती है, समान वायु हृदय में स्थित होती है, उदान से पुरूष उच्छ्वास लेता है और कण्ठ, तालु आदि स्थानों के भेद से शब्दों एवं अक्षरों का उच्चारण करता है। इस प्रकार ये पांच वायु के परिणाम हैं, जो शरीरधारी को चेष्टाशील बनाते हैं। जीव भूमि से ही (अर्थात् घ्राणेन्द्रिय द्वारा) गन्ध गुण का अनुभव करता है, जलसम्बन्धी इन्द्रिय रसना से शरीरधारी पुरूष रस का आस्वादन करता है, तोजेमय नेत्र के द्वारा रूप का तथा वायुसम्बन्धी त्वगिन्द्रिय के द्वारा उसे स्पर्श का ज्ञान होता है। गन्ध, स्पर्श, रस, रूप और शब्द- ये पृथ्वी के गुण माने गये हैं। इनमें से प्रधान गन्ध के गुणों का मैं विस्तार–पूर्वक वर्णन करता हूं। अनुकूल, प्रतिकुल, मधुर, कटु, निर्हारी अर्थात् दूर से आने वाली, तेज गन्धमिश्रित, स्निग्ध, रूक्ष और विशद- ये गन्ध के नौ भेद जानने चाहिये। इस प्रकार पाथ्रिव गन्ध का विस्तार बताया गया। मनुष्य दोनों नेत्रों से रूप को देखता है और त्वगिन्द्रिय से स्पर्श का अनुभव करता है। शब्द, स्पर्श, रूप और रस- ये जल के गुण माने गये हैं। उनमें प्रधान गुण रस है, उसकी जानकारी के लिये अब मैं उसके भेदों का वर्णन करता हूं। तुम उसे मेरे मुंह से सुनो। उदारचेता महर्षियों ने रस के अनेक भेद बताये हैं- मधुर, लवण, तिक्त, कषाय, अम्ल और कटु। इन छ: रूपों में विस्तार को प्राप्त हुआ रस जलमय माना गया है। शब्द, स्पर्श और रूप-ये अग्नि के तीन गुण बताये जाते हैं। ज्योतिर्मय नेत्र रूप को देखते हैं। अग्नि के प्रधान गुण रूप को भी अनेक प्रकार का माना गया है। हृस्व, दीर्घ, स्थूल, चौकोर और सब ओर से गोल, सफेद, काला, लाल, पीला और आकाश की भांति नीला, कठिन, चिक्कण, अल्प, पिच्छिल, मृदु और दारूण-इस प्रकार ज्योतिर्मय रूप नामक गुण सोलह भेदों में विस्तार को प्राप्त हुआ है।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|
}}