महाभारत वन पर्व अध्याय 314 श्लोक 1-16
चतुर्दशाधिकत्रिशततम (314) अध्याय: वन पर्व (आरणेयपर्व)
यक्ष का चारों भाइयों को जिलाकर धर्म के रूप में प्रकट हो युधिष्ठिर को वरदान देना वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर यक्ष के कहते ही सब पाण्डव एठकर खड़े हो गये तथा एक क्षण में ही सबकी भूख-प्यास जाती रही । युधिष्ठिर बोले- इस सरोवर में एक पैर से खडत्रे हुए, किसी से भी पराजित न होने वाले आप से में पूछता हूँ- आप कौन देवश्रेष्ठ हैं ? मुझे तो आप यक्ष नहीं मालूम होते। आप वसुओं में से, रुद्रों में से अथवा मरूद्गणों में से कोई एक श्रेष्ठ पुरुष तो नहीं हैं ? अथवा आप स्वयं वज्रधारी देवराज इन्द्र ही हैं ? मेरे ये भाई तो लाखों वीरों से युद्ध करने वाले हैं। ऐसा तो मेंने कोई योद्धा नहीं देखा, जिसने इा सभी को रणभूमि में गिरा दिया हो । अब जीवित होकर भी इनकी इन्द्रियाँ सुख कीर नींद सोकर उठे हुए पुरुषों के समान स्वस्थ दिखायी देती हैं, अतः आप हमारे कोई सुहृद हैं अथवा पिता ? यक्ष ने कहा- प्रचण्ड पराक्रमी भरतश्रेष्ठ तात युधिष्ठिर ! मैं तुम्हारा जन्मदाता पिता धर्मराज हूँ। तुम्हें देखने की इच्छा से ही मैं यहाँ आया हूँ, मुझे पहचानो। यश, सत्य दम, शौच, सरलता, लज्जा, अचन्चलता, दान, तप और ब्रह्मचर्य - ये सब मेरे शरीर हैं। अहिंसा, समता, शान्ति, दया और अमत्सर - डाह का न होना- इन्हें मेरे पास पहुँचने के द्वार समझो। तु मुण्े सदा प्रिय हो। सौभाग्यवश तुम्हारा शम, दम, उपरति, तितिक्षा, समाधान- इन पाँचों साधनों पर अनुराग है तथा सौभाग्य से तुमने भूख-प्यास? शोक-मो और जरा-मृत्यु इन छहों दोषों को जीत लिया है। इनमें से पहले दो दोष आरम्भ से ही रहते हैं, 1836 बीच के दो तरुणावस्था आने पर होते हैं तथा बाद वाले दो दोष अनितम समय पर आते हैं। तुम्हारा मंगल हो। मैं धर्म हूँ और तुम्हारा व्यवहार जानने की इच्छा से ही यहाँ आया हूँ। निष्पाप राजन! ! तुम्हारी दयालुता और समदर्शिता से मैं तुमपर प्रसन्न हूँ और तुम्हें वर देना चाहता हूँ। पापरहित राजेन्द्र ! तुम मनोनुकूल वर माँग लो। मैं तुम्हें अवश्य दे दूँगा। जो मनुष्य मेरे भक्त हैं, उनकी कभी दुर्गति नहीं होती। युधिष्ठिर बोले- भगवन् ! पहला वर तो मैं यही माँगता हूँ कि जिस ब्राह्मण के अरणी सहित मन्थन काष्ठ को मृग लेकर भाग गया है, उसके अग्निहोत्र लोप न हों। यक्ष ने कहा- कुन्तीनन्दन महाराज युािष्ठिर ! उस ब्राह्मण के अरणी सहित मन्थकाष्ठ को तुम्हारी परीक्षा के लिये मैं ही मृगरूप से लेकर भाग गया था। वैशम्पायनजी कहते हैं- इसके बाद भगवान् धर्म ने उत्त दिया कि (लो, अरणी और मन्थनकाष्ठ) तुम्हें दे ही देता हूँ। देवोपम नरेश। तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम कोई दूसरा वर माँगो। युधिष्ठिर बोले- हम बारह वर्ष तक वन में रह चुके। अब तेरहवाँ वर्ष आ लगा है। अतः ऐसा वर दीजिये कि इसमें कहीं भी रहने पर लोग हमें पहचान न सकें। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर भगवान् धर्म ने उत्तर में कहा- ‘मैं तुम्हें यह वर भी देता हूँ।’ इसके बाद धर्मराज ने पुनः सम्यपराक्रमी युधिष्ठिर को आश्वासन देते हुए कहा- ‘
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