महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 137-153

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तृतीय अध्‍याय: आदिपर्व (पौष्यपर्व)

महाभारत: आदिपर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 126- 146 का हिन्दी अनुवाद

‘अब हम अपना कार्य साधन कर रहे हैं।’ ऐसा कहकर उत्तंक दोनों कुण्डलों को लेकर वहाँ से चल दिये। मार्ग में उन्होंने अपने पीछे आते हुए एक नग्न क्षपणक को देखा जो बार बार दिखायी देता और छिप जाता था। कुछ दूर जाने के बाद उत्तंक ने उन कुण्डलों को एक जलाशय के किनारे भूमि पर रख दिया और स्वयं जल सम्बन्धी कृत्य (शौच, स्त्रान, आचमन, संध्या-तर्पण आदि) करने लगे। इतने में ही वह क्षपणक बड़ी उतावली के साथ वहाँ आया और दोनों कुण्डलों को लेकर चंपत हो गया। उत्तंक ने स्त्रान-तर्पण आदि जल सम्बन्धी कार्य पूर्ण करके शुद्ध एवं पवित्र होकर देवताओं तथा गुरूओं को नमस्कार किया और जल से बाहर निकल कर बड़े वेग से उस क्षपणक का पीछा किया। वास्तव में वह नागराज तक्षक ही था। दौड़ने से वह उत्तंक के अत्यन्त समीपवर्ती हो गया। उत्तंक ने उसे पकड़ लिया। पकड़ मे आते ही उसने क्षपणक का रूप त्याग दिया और तक्षक नाग का रूप धारण करके वह सहसा प्रकट हुए पृथ्वी के एक बहुत बड़े विवर में घुस गया। बिल में प्रवेश करके वह नागलोक में अपने घर चला गया। तदनन्तर उस क्षत्राणी की बात का स्मरण करके उत्तंक ने नागलोक तक उस तक्षक का पीछा किया। पहले तो उन्होंने उस विवर को अपने डंडे की लकड़ी से खोदना आरम्भ किया, किन्तु इसमें उन्हें सफलता न मिली। उस समय इन्द्र ने उन्हें क्लेश उठाते देखा तो उनकी सहायता के लिये अपना वज्र भेज दिया। उन्होंने वज्र से कहा-‘जाओ, इस ब्राह्मण की सहायता करो।’ तब बज्र ने डंडे की लकड़ी में प्रवेश करके उस बिल को विदीर्ण कर दिया (इससे पाताल लोक में जाने के लिये मार्ग बन गया।)। तब उत्तंक उस बिल में घुस गये और उसी मार्ग से भीतर प्रवेश करके उन्होंने नागलोक का दर्शन किया, जिसकी कहीं सीमा नहीं थी। जो अनेक प्रकार के मन्दिरों, महलों, झुके हुए छज्जों वाले ऊँचे-ऊँचे मण्डपों तथा सैकड़ों दरवाजों से सुशोभित और छोटे बड़े अद्भुत क्रीडा स्थानों से व्याप्त था। वहाँ उन्होंने इन श्लोकों द्वारा उन नागों का स्तवन किया-ऐरावत जिसके राजा हैं, जो समगंगण में विशेष शोभा पाते हैं, बिजली और वायु से प्रेरित हो जल की वर्षा करने वाले बादलों की भाँति बाणों की धारावाहित वृष्टि करते हैं, उन सर्पों की जय हो। ऐरावतकुल में उत्पन्न नागगणों में से कितने ही सुन्दर रूप वाले हैं, उनके अनेक रूप हैं, वे विचित्र कुण्डल धारण करते हैं तथा आकाश में सूर्य देव की भाँति स्वर्गलोक में प्रकाशित होते हैं। गंगा जी के उत्तर तट पर बहुत से नागों के घर हैं, वहाँ रहने वाले बड़े-बड़े सर्पों की भी मैं स्तुति करता हूँ। ऐरावत नाग के सिवा दूसरा कौन है, जो सूर्यदेव की प्रचण्ड किरणों के सैन्य में विचरने की इच्छा कर सकता है? ऐरावत के भाई धृतराष्ट्र जब सूर्य देव के साथ प्रकाशित होते और चलते हैं, उस समय अट्ठाईस हजार आठ सर्प सूर्य के घोड़ों की बागडोर बनकर जाते हैं। जो इसके साथ जाते हैं और जो दूर के मार्ग पर जा पहुंचे हैं, ऐरावत के उन सभी छोटे बन्धुओं को मैंने नमस्कार किया है। जिनका निवास सदा कुरूक्षेत्र और खाण्डव वन में रहा है, उन नागराज तक्षक की मैं कुण्डलों के लिये स्तुति करता हूँ। तक्षक और अश्वसेन- ये दोनों नाग सदा साथ विचरने वाले हैं। ये दोनों कुरूक्षेत्र में इक्षुमती नदी के तट पर रहा करते थे। जो तक्षक के छोटे भाई हैं, श्रुतसेन नाम से जिनकी ख्याति है तथा जो पाताललोक में नागराज की पदवी पाने के लिये सूर्यदेव की उपासना करते हुए कुरूक्षेत्र में रहे हैं, उन महात्मा को मैं सदा नमस्कार करता हूँ। इस प्रकार उन श्रेष्ठ नागों की स्तुति करने पर भी जब ब्रह्मर्षि उत्तंक उन कुण्डलों को न पा सके तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई। इस प्रकार नागों की स्तुति करते रहने पर जब वे उन दोनों कुण्डलों को प्राप्त न कर सके, तब उन्हें वहाँ दो स्त्रियाँ दिखायी दीं, जो सुन्दर करघे पर रखकर सूत के ताने में वस्त्र बुन रही थीं, उस ताने में उत्तंक मुनि ने काले और सफेद दो प्रकार के सूत और बारह अरोंका एक चक्र भी देखा, जिसे छः कुमार घुमा रहे थे। वहीं एक श्रेष्ठ पुरूष भी दिखायी दिये। जिनके साथ एक दर्शनीय अश्व भी था। उत्तंक ने इन मन्त्र तुल्य श्लोकों द्वारा उनकी स्तुति की। यह जो अविनाशी कालचक्र निरन्तर चल रहा है, इसके भीतर तीन सौ साठ अरे हैं, चौबीस पर्व हैं और इस चक्र को छः कुमार घुमा रहे हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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