महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 53 श्लोक 1-18

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त्रिपञ्चाशत्तम (53) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: त्रिपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

मार्ग में श्रीकृष्ण कौरवों के विनाश की बात सुनकर उतङ्क मुनि का कुपित होना और श्रीकृष्ण का उन्हें शान्त करना

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! इस प्रकार द्वारका जाते हुए भगवान् श्रीकृष्ण को हृदय से लगाकर भारतवंश के श्रेष्ठ वीर शत्रुसंतापी पाण्डव अपने सेवकों-सहित पीछे लौटे। अर्जुन वृष्णिवंशी प्यारे सखा श्रीकृष्ण को बारंबार छाती से लगाया और जब तक वे आँखों से ओझल नहीं हुए, तब तक उन्हीं की ओर वे बारंबार देखते रहे। जब रथ दूर चला गया, तब पार्थ ने बड़े कष्ट से श्रीकृष्ण की ओर लगी हुई अपनी दृष्टि को पीछे लौटाया। किसी से पराजित न होने वाले श्रीकृष्ण की भी यही दशा थी। महामना भगवान् की यात्रा के समय जो बहुत से अद्भुत शकुन प्रकट हुए, उन्हें बतात हूँ, सुनो। उनके रथ के आगे बड़े वेग से हवा आती और रास्ते की धूल, कंकण तथा काँटों को उड़ाकर अलग कर देती थी। इन्द्र श्रीकृष्ण के सामने पवित्र एवं सुगन्धित जल तथा दिव्य पुष्पों की वर्षा करते थे। इस प्रकार मरुभूमि के समतल प्रदेश में पहुँचकर महाबाहु श्रीकृष्ण ने अमित तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ उत्तंक का दर्शन किया। विशाल नेत्रों वाले तेजस्वी श्रीकृष्ण उत्तंक मुनि की पूजा करके स्वयं भी उनके द्वारा पूजित हुए। तत्पश्चात् उन्होंने मुनि का कुशल समाचार पूछा। उनके कुशल मंगल पूछने पर विप्रवर उत्तंक ने भी मधुसूदन माधव की पूजा करके उनसे इस प्रकार प्रश्न किया- ‘शूरनन्दन! क्या तुम कौरवों और पाण्डवों के घर जाकर उनमें अविचल भ्रातभाव स्थापित कर आये? यह बात मुझे विस्तार के साथ बताओ। केशव! क्या तुम उन वीरों में संधि कराकर ही लौट रहे हो? वृष्णिपंगुव! वे कौरव, पाण्डव तुम्हारे संबंधी तथा तुम्हें सदा ही परम प्रिय रहे हैं। ‘परंतप! क्या पाण्डु के पाँचों पुत्र और धृतराष्ट्र के भी सभी आत्मज संसार में तुम्हारे साथ सुखपूर्वक विचर सकेंगे? ‘केशव! तुम जैसे रक्षक एवं स्वामी के द्वारा कौरवों के शान्त कर दिये जाने पर अब पाण्डवनरेशों को अपने राज्य में सुख तो मिलेगा न? ‘तात! मैं सदा तुमसे इस बात की संभावना करता था कि तुम्हारे प्रयत्न से कौरव-पाण्डवों में मेल हो जायेगा। मेरी जो वह सम्भावना थी, भरतवंशियों के संबंध में तुमने वह सफल तो किया है न? श्रीभगवान् ने कहा- मैंने पहले कौरवों के पास जाकर उन्हें शान्त करने के लिये बड़ा प्रयत्न किया, परंतु वे किसी तरह संधि के लिये तैयार न किये जा सके। जब उन्हें समतापूर्ण मार्ग में स्थापित करना असम्भव हो गया, तब वे सब-के-सब अपने पुत्र और बन्धु-बान्धवों सहित युद्ध में मारे गये। महर्षे! प्रारब्ध के विधान को कोई बुद्धि अथवा बल से नहीं मिटा सकता। अनघ! आपको तो ये सब बातें मालूम होंगी कि कौरवों ने मेरी, भीष्मजी की तथा विदुरजी की सम्मति को भी ठुकरा दिया। इसीलिये वे आपस में लड़-भिड़कर यमलोक जा पहुँचे। इस युद्ध में केवल पाँच पाण्डव ही अपने शत्रुओं को मारकर जीवित बच गये हैं। उनके पुत्र भी मार डाले गये हैं। धृराष्ट्र के सभी पुत्र, जो गान्धारी के पेट से पैदा हुए थे, अपने पुत्र और बान्धवों सहित नष्ट हो गये।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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