महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 90 श्लोक 39-57

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नवतितम (90) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: नवतितम अध्याय: श्लोक 39-57 का हिन्दी अनुवाद

'श्रीकृष्ण ! जो सुकुमार, युवक, शौर्यसंपन्न तथा दर्शनीय है, जो सभी भाइयों के बाहर विचरनेवाला प्रिय प्राणस्वरूप है, जिसमें युद्ध की विचित्र कला शोभा पाती है, वह महान धनुर्धर, महाबली एवं मुझसे पाला हुआ मेरा पुत्र पांडुनंदन नकुल शकुशल तो है न ? 'महाबाहो ! क्या मैं सुख-भोग के योग्य, दुःख भोगने के अयोग्य एवं सुकुमार महारथी नकुल को फिर कभी देख सकूँगी ? 'वीर ! आँखों की पलकें गिरने में जितना समय लगता है, उतनी देर भी नकुल से अलग रहने पर मैं धैर्य खो बैठती थी, परंतु अब इतने दिनों से उसे न देखकर भी जी रही हूँ । देखो, मैं कितनी निर्मम हूँ । 'जनार्दन ! द्रुपदकुमारी कृष्णा मुझे अपने सभी पुत्रों से अधिक प्रिय है । वह कुलीन, अनुपम सुंदरी तथा समस्त सद्गुणों से सम्पन्न है। 'पुत्रलोक से पतिलोक को श्रेष्ठ समझकर उसका वरन करनेवाली सत्यवादिनी द्रौपदी अपने प्यारे पुत्रों को भी त्याग कर पांडवों का अनुसरण करती है। 'अच्युत ! मैंने सब प्रकार की वस्तुएँ देकर जिसका समादर किया है, वह परम उत्तम कुल में उत्पन्न हुई सर्वकल्याणी महारानी द्रौपदी इन दिनों कैसे दशा में है ? 'हाय ! जो महाधनुर्धर, शूरवीर, युद्धकुशल तथा अग्नितुल्य तेजस्वी पाँच पतियों से युक्त है, वह द्रुपदकुमारी कृष्णा भी दुःखभागिनी हो गयी। 'शत्रुदमन ! यह चौदहवाँ वर्ष बीत रहा है । इतने दिनों से मैंने पुत्रों के बिछोह से संतप्त हुई सत्यवादिनी द्रौपदी को नहीं देखा है । 'यदि वैसे सदाचार और सत्कर्मों से युक्त द्रुपदकुमारी अक्षय सुख नहीं पा रही है, तन तो निश्चय ही यह कहना पड़ेगा कि मनुष्य पुण्यकर्मों से सुख नहीं पाता है। 'युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव भी मुझे द्रौपदी से अधिक प्रिय नहीं हैं । उसी द्रौपदी को मैंने भरी सभा में लायी गयी देखा, उससे बढ़कर महान दुःख मुझे पहले कभी नहीं हुआ था। 'क्रोध और लोभ के वशीभूत हुए दुष्ट दुर्योधन ने रजस्वलावस्था में एकवस्त्रधारिणी द्रौपदी को सभा में बुलवाया और उसे श्वसुरजनों के समीप खड़ी कर दिया । उस समय सभी कौरवों ने उसे देखा था । 'वहीं राजा धृतराष्ट्र, महाराज बाह्लिक, कृपाचार्य, सोमदत्त तथा अन्यान्य कौरव खेद में भरे हुए बैठे थे। 'मैं तो उस कौरव-सभा में सबसे अधिक आदर विदुरजी को देती हूँ, ( जिन्होने द्रौपदी के प्रति किए जानेवाले अन्याय का प्रकट रूप में विरोध किया था ।) मनुष्य अपने सदाचार से ही श्रेष्ठ होता है, धन और विद्या से नहीं।'श्रीकृष्ण ! परम बुद्धिमान् गंभीरस्वभाव महात्मा विदुर का शील ही आभूषण है, जो सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त ( विख्यात ) करके स्थित है'। वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमजेय ! श्रीकृष्ण को आया हुआ देख कुंतीदेवी शोकातुर तथा आनंदित हो अपने ऊपर आए हुए नाना प्रकार के सम्पूर्ण दुःखों का पुन: वर्णन करने लगी। 'शत्रुदमन श्रीकृष्ण ! पहले के दुष्ट राजाओं ने जो जूआ और शिकार की परिपाटी चला दी है, वह क्या इन सबके लिए सुखावह सिद्ध हुई है ? (अपितु कदापि नहीं )। 'सभा में कौरवों के समीप धृतराष्ट्र के पुत्रों ने द्रौपदी को जो ऐसा कष्ट पहुंचाया है, जिससे किसी का मंगल नहीं हों सकता, वह अपमान मेरे हृदय को दग्ध करता रहता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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