महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 90 श्लोक 58-72
नवतितम (90) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
'परंतप जनार्दन ! पांडवों का नगर से निकाला जाना तथा उनका वन में रहने के लिए बाध्य होना आदि नाना प्रकार के दुःखों का मैं अनुभव कर चुकी हूँ। 'परंतप माधव ! मेरे बालकों को अज्ञातभाव से रहना पड़ा है और अब राज्य न मिलने से उनकी जीविका का भी अवरोध हो गया है । पुत्रों के साथ मुझे इतना महान क्लेश नहीं प्राप्त होना चाहिए। 'दुर्योधन ने मेरे पुत्रों को कपट द्यूत के द्वारा राज्य से वंचित कर दिया । उन्हें इस दुरवस्था में रहते आज चौदहवाँ वर्ष बीत रहा है । यदि सुख भोगने का अर्थ है पुण्य के फल का क्षय होना, तब तो पाप के फलस्वरूप दुःख भोगने लेने के कारण अब हमें भी दुःख के बाद सुख मिलना ही चाहिए। 'श्रीकृष्ण ! मेरे मन में पांडवों तथा धृतराष्ट्र पुत्रों के प्रति कभी भेदभाव नहीं था । इस सत्य के प्रभाव से निश्चय ही मैं देखूँगी कि तुम भावी संग्राम में शत्रुओं को मारकर पांडवों सहित संकट से मुक्त हो गए तथा राजयलक्ष्मी ने तुम लोगों का ही वरण किया है । पांडवों में ऐसे सभी गुण मौजूद हैं, जिनके ही कारण शत्रु इन्हें परास्त नहीं कर सकते । 'मैं जो कष्ट भोग रहीं हूँ, इसके लिए न अपने को दोष देती हूँ, न दुर्योधन को; अपितु पिता की ही निंदा करती हूँ, जिन्होने मुझे राजा कुंतीभोज के हाथ में उसी प्रकार दे दिया, जैसे विख्यात दानी पुरुष याचक को साधारण धन देते हैं। 'मैं अभी बालिका थी, हाथ में गेंद लेकर खेलती फिरती थी, उसी अवस्था में तुम्हारे पितामह ने मित्रधर्म का पालन करते हुए अपने सखा महात्मा कुंतिभोज के हाथ में मुझे दे दिया। 'परंतप श्रीकृष्ण ! इस प्रकार मेरे पिता तथा श्वसुरों ने भी मेरे साथ वञ्च्नापूर्ण बर्ताव किया है । इससे मैं अत्यंत दुखी हूँ । मेरे जीवित रहने से क्या लाभ ? 'अर्जुन के जन्मकाल में जब मैं सूतिकागृह में थी, उस रात्रि में आकाशवाणी ने मुझसे यह कहा था – 'भद्रे ! तेरा यह पुत्र सारी पृथ्वी को जीत लेगा । इसका यश स्वर्गलोक तक फैल जाएगा । यह महान संग्राम में कौरवों का संहार करके राज्य पर अधिकार कर लेगा, फिर अपने भाइयों के साथ तीन अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करेगा'। 'मैं इस आकाशवाणी को दोष नहीं देती, अपितु महाविष्णुस्वरूप धर्म को ही नमस्कार करती हूँ । वही इस जगत् का सृष्टा है । धर्म ही सदा समस्त प्रजा को धारण करता है। 'वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण ! यदि धर्म है तो तुम भी वह सब काम पूरा कर लोगे, जिसे उस समय आकाशवाणी ने बताया था। 'माधव ! वैधव्य, धन का नाश तथा कुटुम्बीजनों के साथ बढ़ा हुआ वैर-भाव इनसे मुझे उतना शोक नहीं होता, जितना कि पुत्रों का विरह मुझे शोकदग्ध कर रहा है। 'समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ गांडीवधारी अर्जुन को जब तक मैं नहीं देख रही हूँ, तब तक मेरे हृदय को क्या शांति मिलेगी ? 'गोविंद ! चौदहवाँ वर्ष है, जबसे कि मैं युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल-सहदेव को नहीं देख पा रहीं हूँ। 'जनार्दन ! जो लोग प्राणों का नाश होने से अदृश्य होते हैं, उनके लिए मनुष्य श्राद करते हैं । यदि मृत्यु का अर्थ अदृश्य हो जाना ही है तो मेरे लिए पांडव मर गए हैं और मैं भी उनके लिए मर चुकी हूँ।
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