महाभारत विराट पर्व अध्याय 14 श्लोक 44-50

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:२८, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

चतुर्दशम (14) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व))

महाभारत: विराट पर्व चतुर्दशमोऽध्यायः श्लोक 44-50 का हिन्दी अनुवाद



‘कल्याणि ! जब सम्पूर्ण मनोरथों से सम्पन्न अनुपम भोग यहाँ भोगने के लिये तुम्हें सुलभ हो रहे हैं, तब तुम दासीपन में क्यों आसक्त हो ? ‘शुभानने ! मैंने यह सम्पूर्ण राज्य तुम्हें अर्पित कर दिया। अब तुम्ही इसाकी स्वामिनी हो। वरारोहे ! मुझे अपना लो और मेरे साथ उत्तमोत्तम भोगों का भोग करो’। 1880 कीचक के इस प्रकार अशुभ (पापपूर्ण) वचन कहने पर सती-साध्वी द्रौपदी ने उसकी उन आछी बातो की निन्दा करते हुए इस प्रकार उत्तर दिया। सैरन्ध्री बोली - सुतपुत्र ! तु आज इस प्रकार मोह के फंदे में न पड़। अपनी जान न गँवा। तुझे मालूम होना चाहिये कि पाँच भयंकर गंधर्व मेरी नित्य रक्षा करते हैं। वे गन्धर्व ही मेरे पति हैं। तू कदापि मुझे पा नहीं सकता। मेरे पति कुपित होकर तुझे मार डालेंगे; अतः सँभल जा। इस पापबुद्धि का त्याग कर दे। अपना सर्वनाश न करा।अरे ! तु उस राह पर जाना चाहता है, जहाँ दूसरे पुरुष नहीं जा सकते। जैसे नदी के एक किनारे पर बैठा हुआ कोई मन्दबुद्धि अचेत बालक दूसरे किनारे पर तैरकर जाना चाहता हो,वैसा ही विनाशकारी कार्य तू भी करना चाहता है।। सूतपुत्र ! मुझपर कुदृष्टि डालकर पृथ्वी के भीतर (पाताल में) घुस जा, आकाश में उडत्र जा अथवा समुद्र के उस पार भाग जा, तथापि मेरे पतियों के हाथ से तू छूट नहीं सकता; क्योकि मेरे पति देवताओं के पुत्र तथा आकाश में विचरने वाले हैं। वे अपने शत्रुओं को मथ डालने की शक्ति रखते हैं।


« पीछे आगे »


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।