महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 197 श्लोक 1-16
सप्तनवत्यधिकशततम (197) अध्याय: द्रोणपर्व ( नारायणास्त्रमोक्ष पर्व )
भीमसेन के वीरोचित उद्धार और धृष्टधुम्र के द्वारा अपने कृत्य का समर्थन
संजय कहते हैं – महाराज ! अर्जुन की यहबात सुनकर वहां बैठे हुए सब महारथी मौन रह गये । उनसे प्रिय या अप्रिय कुछ नहीं बोल। भरतश्रेष्ठ ! तब महाबाहु भीमसेन को क्रोध चढ़ आया । उन्होनें कुन्ती कुमार अर्जुन को फटकारते हुए-से कहा। पार्थ ! वनवासी मुनि अथवा किसी भी प्राणी को दण्ड न देते हुए कठोर व्रत का पालन करने वाला ब्राहृाण जिस प्रकार धर्म का उपदेश करता है, उसी प्रकार तुम भी धर्म सम्मत बातें कह रहे हो। परंतु जो क्षति (संकट) से अपना तथा दूसरों का त्राण करता है, युद्ध में शत्रुओं को क्षति पहुंचाना ही जिसकी जीविका है तथा जो स्त्रियों और साधु पुरूषों पर क्षमाभाव रखता है, वही क्षत्रिय है और उसे ही शीघ्र इस पृथ्वी के राज्य, धर्म, यश और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। तुम समस्त क्षत्रियोचित गुणों से सम्पन्न और इस कुल का भार वहन करने में समर्थ होते हुए भी आज मूर्ख के समान बातें कर रहे हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता है। कुन्तीनन्दन ! तुम्हारा पराक्रम शचीपति इन्द्र के समान है । महासागर जैसे अपनी तट-भूमिका उल्ल्ांघन नहीं करता, उसी प्रकार तुम भी कभी धर्म-मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते हो। आज तेरह वर्षो से संचित किए हुए अमर्षको पीछे करके जो तुम धर्म की अभिलाषा रखते हो, इसके लिये कौन तुम्हारी पूजा नहीं करेगा ? तात ! सौभाग्य की बात है कि इस समय भी तुम्हारा मन अपने धर्म का ही अनुसरण करता है । धर्म से कभी च्यूत न होने वाले मेरे भाई ! तुम्हारी बुद्धि क्रूरता की ओर न जाकर जो सदा दया भाव में ही रम रही है, यह भी कम सौभाग्य की बात नहीं है। परन्तु धर्म में तत्पर रहने पर भी जो शत्रुओं ने अधर्म से हमारा राज्य छीन लिया, द्रोपदी को सभा में लोकर अपमानित किया तथा हमें वल्कल ओर मृगचर्म पहनाकर तेरह वर्षों के लिये जो वन में निर्वासित कर दिया, हम वैसे बर्ताव के योग्य कदापि नहीं थे। अनघ ! ये सारे अन्याय अमर्ष के स्थान थे असहाय थे, परंतु मैने सच चुपचाप सह लिये । क्षत्रिये-धर्म में आसक्त होने के कारण ही यह सब कुछ सहन किया गया है। परंतु अब उनके उन नीचतापूर्ण पाप कर्मो को याद करके मैं तुम्हारें साथ रहकर अपने राज्य का अपहरण करने वाले इन नीच शत्रुओं को उनके सगे-सम्बन्धियों सहित मार डालूंग। तुमने ही पहले युद्ध के लिये कहा था और उसी के अनुसार हम यहां आकर यथा शक्ति, उसके लिये प्रत्यत्न कर रहे हैं, परंतु आज तुम्हीं हमारी निन्दा करते हो !। तुम अपने क्षत्रिय-धर्म को नहीं जानना चाहते । तुम्हारी ये सारी बातें मिथ्या ही हैं । एक तो हम स्वयं ही भय से पीड़ित हो रहे हैं, उपर से तुम भी अपने वाग्बाणों द्वारा हमारे मर्म स्थानों को छेदे डालते हो। शत्रु सूदन ! जैसे कोई घायल मनुष्यों के घाव पर नमक बिखेर दे (और वे वेदना से छटपटाने लगें), उसीप्रकार तुम अपने वाग्बाणों से पीड़ित करके मेरे हृदय को विदीर्ण किये डालते हो। यधपि तुम ओर हम प्रंशसा के पात्र हैं, तो भी तुम जो अपनी और हमारी प्रशंसा नहीं करते हो, यह बहुत बड़ा अधर्म है और तुम धार्मिक होते हुए इस अधर्म को नहीं समझ रहे हो।
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