महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 82 श्लोक 44-56

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द्वयशीतितम (82) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्वयशीतितम अध्याय: श्लोक 44-56 का हिन्दी अनुवाद

न्याय की बात तो यह है कि बुराई करने वाले को ही मारा जाय और पुण्य श्रेष्ठ कर्म करने वाले को किसी तरह भी कोई कष्ट न होने पावे, परंतु यहाँ ऐसा नहीं होता; अतः इस राज्य में स्थिर भाव से निवास करना किसी के लिये भी उचित नहीं है। विद्वान पुरूष को यहाँ से अति शीघ्र हट जाना चाहिये। राजन! सीता नाम से प्रसिद्व एक नदी है, जिसमें नाव भी डूब जाती है, वैसी ही यहाँ की राजनीति भी है ( इसमें मेरे जैसे सहायकों के भी डूब जाने की आशंका है )। मैं तो इसे समस्त प्राणियों का विनाश करने वाली फाँसी ही समझता हूँ। आप शहद के छत्ते से युक्त पेड की उस ऊंची डाली के समान है, जहाँ से नीचे गिरने का ही भय है। आप विष मिलाये हुए भोजन के तुल्य है, आपका भाव असज्जनों के समान है, सज्जनों के तुल्य नहीं है। भूपाल! आप विषैले सर्पों से घिरे हुए कुएँ के समान हैं, राजन् ! आपकी अवस्था उस मीठे जलवाली नदी के समान हो गयी हैं, जिसके घाटतक पहुँचना कठिन हैं, जिसकंे दोंनो किनारे बहुत ऊँचें हो और वहाँ करील के झाड़ तथा बेत की वल्लरियाँ सब ओर छा रही हो। जैसे कुत्तों, गधों और गीदड़ों से घिरा हुआ राजहंस बैठा हो, उसी तरह दुष्ट कर्मचारियों से आप घिरे हुए हैं। जैसे लताओं का विशाल समूह किसी महान् वृक्ष का आश्रय लेकर बढ़ता है, फिर धीरे-धीरे उस वृक्ष को लपेट लेता है और उसका अतिक्रमण करके उससें भी ऊँचे तक फैल जाता हैं, फिर वही सूखकर भयानक ईंधन बन फैल जाता हैं, तब दारूण दावानल उसी ईंधन के सहारे उस विशाल वृक्ष को भी जला डालता हैं, राजन् ! आपके मन्त्री भी उन्हीं सूखी लताओं के समान हो गयें हैं अर्थांत् आपके ही आश्रय से बढ़कर आप ही के विनाश का कारण बन रहे हैं। अतः आप उनका शोधन कीजिये। नरेश्वर! आपने ही जिन्हें मन्त्रीं बनाया और आपने जिनका पालन किया, वे आपसे ही कपट भाव रखकर आपके ही हित का विनाश करना चाहते हैं। मैं राजा के साथ रहने वाले अधिकारियों का शीलस्वभाव जानना चाहता था, इसलिये सदा सशक्त रहकर बड़ी सावधानी के साथ यहाँ रहा हूँ। ठीक उसी तरह, जैसे कोई साँप वाले मकान में रहता हो अथवा किसी शूरवीर की पत्नी के घर में घुस गया हो। क्या इस देश के राजा जितेन्द्रिय हैं? क्या इनके अंदर रहने वाले सेवक इनके वश में है? क्या यहाँ की प्रजाओं का राजा पर प्रेम हैं? और राजा भी क्या अपनी प्रजाओं पर प्रेम रखते हैं? नृपश्रेष्ठ ! इन्हीं सब बातों को जानने की इच्छा से मैं आपके यहाँ आया था। जैसे भूखें को भोजन अच्छा लगता हैं, उसी प्रकार आपका दर्शन मुझे बड़ा प्रिय लगता है; परंतु जैसंे प्यास न रहने पर पानी अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार आपके ये मन्त्री मुझे अच्छे नहीं जान पड़ते हैं। मैं आपकी भलाई करने वाला हूँ, यही इन मन्त्रियों मे मुझमें बड़ा भारी दोष पाया है और इसलिये ये मुझसे द्वेष रखने लगे हैं। इसके सिवा दूसरा कोई इनके रोष का कारण नहीं हैं। मुझे अपने इस कथन की सत्यता में कोई संदेह नहीं हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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