महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 190 श्लोक 11-16

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नवत्यधिकशततम (190) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: नवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 11-16 का हिन्दी अनुवाद

भृगुजी ने कहा- मुने! असत्‍य से अज्ञान की उत्‍पत्ति हुई है; अत: तमाग्रस्‍त मनुष्‍य अधर्म के ही पीछे चलते है; धर्म का अनुसरण नहीं करते हैं। जो लोग क्रोध, लोभ, हिंसा और असत्‍य आदि से आच्‍दादित हैं, वे न तो इस लोक लोक में सुखी होते हैं और न परलोक में ही। वे नाना प्रकार के रोग, व्‍याधि और ताप से संतप्‍त होते रहते हैं। वध और बंधन आदि के क्‍लेशों से तथा भूख, प्‍यास और थकावट के कारण होने वाले संतापों से भी पीड़ित होते हैं। इतना ही नहीं, उन्‍हें आंधी, पानी, अत्‍यंत गर्मी और अधिक सर्दी से उत्‍पन्‍न हुए भयंकर शारीरिक कष्‍ट भी सहन करने पड़ते हैं । बंधु–बांधवों की मृत्‍यु, धन के नाश और प्रेमीजनों के वियोग के कारण होने वाले मानसिक शोक भी उन्‍हें सताते रहते हैं । बुढा़पा और मृत्‍यु के कारण भी बहुत–से दूसरे–दूसरे क्‍लेश भी उन्‍हें पीड़ा रहते हैं। जो इन शा‍रीरिक और मानसिक दु:खों के संबंध से रहित है, उसी को सुख का अनुभव होता है । स्‍वर्गलोक में ये पूर्वोक्‍त दु:खरूप दोष नहीं उत्‍पन्‍न होते हैं। वहां निम्‍नांकित बातें होती हैं। स्‍वर्ग में अत्‍यंत सुखदायिनी हवा चलती है । मनोहर सुगंध छायी रहती है। भूख, प्‍यास, परिश्रम, बुढा़पा और पाप के फलका कष्‍ट वहां कभी नहीं भोगना पड़ता है। स्‍वर्ग में सदा सुख ही होता है। इस मर्त्‍यलोक में सुख और दु:ख दोनों होते हैं। नरक में केवल दु:ख–ही–दु:ख बताया गया है। वास्‍तविक सुख तो वह परमपदस्‍वरूप परब्रह्म परमात्‍मा ही है। पृथ्‍वी सम्‍पूर्ण भूतों की जननी है। संसार की स्त्रियां भी पृथ्‍वी के समान ही संतान की जननी हेाती हैं। पुरूष ही वहां प्रजापति के समान है । पुरूष का जो वीर्य है, उसे तेज:स्‍वरूप समझा जाता है। पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने इस स्‍त्री–पुरूष जगत् की सृष्टि की थी। यहां समसत प्रजा अपने–अपने कर्मों से आवृत होकर सुख–दु:ख का अनुभव करती है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में भृगु–भरद्वाजसंवादविषयक एक सौ नब्‍बेवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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