महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 92 श्लोक 1-19

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १३:१४, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्विनवतितम (92) अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: द्विनवतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

घटोत्‍कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि प्रमुख वीरों के साथ भयंकर युद्ध

संजय कहते है- राजन् ! दानवों के लिये भी दुःसह उस बाण वर्षा को राजाधिराज दुर्योधन ने युद्ध में उसी प्रकार धारण किया, जैसे महान गजराज जल की वर्षा को अपने ऊपर धारण करता है।भरतश्रेष्ठ ! उस समय क्रोध में भरकर फुफकारते हुए सर्प के समान लंबी साँस खींचता हुआ आपका पुत्र दुर्योधन जीवन रक्षा को लेकर भारी संशय में पड़ गया। उसने अत्यन्त तीखे पचीस नाराच छोड़े। महाराज ! वे सब सहसा उसे राक्षसराज घटोत्कच पर जाकर गिरे, मानो गन्धमादन पर्वत पर क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प कहीं से आ पड़े हो। उन बाणों से घायल होकर वह राक्षस कुम्भस्थल से मद की धारा बहाने वाले गजराज की भाँति अपने शरीर से रक्त की धारा प्रवाहित करने लगा। उसने राजा दुर्योधन का विनाश करने के लिये दृढ़ निश्चय कर लिया। तत्पश्चात उसने पर्वतों को भी विदीर्ण कर डालने वाली प्रज्वलित उल्का एवं वज्र के समान प्रकाशित होने वाली एक महाशक्ति हाथ में ली। महाबाहु घटोत्कच आपके पुत्र को मारने डालने की इच्छा से वह शक्ति ऊपर को उठा रहा था। उसे उठी हुई देख वंग देश के राजाओं ने बड़ी उतावाली के साथ अपने पर्वताकार गजराज को उस राक्षस की ओर बढ़ाया। वे वंग नरेश उस शीघ्रगामी महाबली गजराज पर आरूढ़ हो युद्ध के मैदान में उसी मार्ग पर चले, जहाँ दुर्योधन का रथ खड़ा था। उन्होंने अपने हाथी के द्वारा आपके पुत्र का मार्ग रोक दिया। महाराज ! बुद्धिमान वंग नरेश के द्वारा दुर्योधन के रथ का मार्ग रूका हुआ देख घटोत्कच के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उसने उस उठायी हुई महाशक्ति को उस हाथी पर ही चला दिया। राजन् ! घटोत्कच की भुजाओं से छूटी हुई उस शक्ति के आघात से हाथी का कुम्भस्थल फट गया और उससे रक्त का स्त्रोत बहने लगा। फिर वह तत्काल ही भूमिपर गिरा और मर गया। हाथी के गिरते समय बलवान वंगनरेश उसकी पीठ से वेगपूर्वक कूदकर धरती पर आ गये। उस श्रेष्ट गजराज को गिरा हुआ देख सारी कौरव सेना भाग खड़ी हुई। यह सब देखकर दुर्योधन के मन में बड़ी व्यथा हुई। वह घटोत्कच के पराक्रम दृष्टिपात करके उसका सामना करने में असमर्थ हो गया। क्षत्रिय धर्म तथा अपने अभिमान को सामने रखकर पलायन का अवसर प्राप्त होने पर भी राजा दुर्योधन पर्वत की भाँति अविचल भाव से खड़ा रहा। तत्पशचात उसने प्रलय काल की अग्नि के समान तेजस्वी एवं तीखे बाण को धनुष पर रखकर उसे अत्यन्त क्रोधपूर्वक उस घोर निशाचर पर छोड़ दिया। इन्द्र के वज्र के समान प्रकाशित होने वाले उस बाण को अपनी ओर आता देख महामना राक्षस घटोत्कच ने अपनी फुर्ती के कारण अपने आपको उससे बचा लिया। इसके बाद क्रोध से आँखें लाल करके वह पुनः भयंकर गर्जना करने लगा। जैसे प्रलयकाल में संवर्तक मेघ की गर्जना होती है, वैसी ही गर्जना करके उसने कौरव सेना को दहला दिया। उस भयानक राक्षस की वह घोर गर्जना सुनकर शान्तनु नन्दन भीष्म ने द्रोणाचार्य के पास जाकर इस प्रकार कहा- आचार्य ! यह राक्षस के मुख से निकली हुई घोर गर्जना सुनायी दे रही है, उससे अनुमान होता है कि अवश्य ही हिडिम्बाका पुत्र घटोत्कच राजा दुर्योधन के साथ जूझ रहा है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।