महाभारत वन पर्व अध्याय 202 श्लोक 1-21

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १३:२९, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्वयधिकद्विशततम (202) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व )

महाभारत: वन पर्व: द्वयधिकद्विशततमो अध्‍याय : श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद


उत्तड़क का राजा बृहदश्रव से धुन्‍धु का वध करने के लिये आग्रह मार्कण्‍डेयजी कहते हैं-राजन्। महाराज इक्ष्‍वाकु के देहावसान के पश्‍यचात उनके परम धर्मात्‍मा पुत्र शशाद इस पृथ्‍वी राज्‍य करने लगे । वे अयोध्‍या में रहते थे । सशाद के पुत्र पराक्रमी ककुत्‍स्‍थ के पुत्र अनेना और अनेना के पृथु हुए । पृथु के विष्‍वगश्रव और उनके पुत्र अद्रि हुए । अद्रि के पुत्र का नाम युवराश्रव था । युवानाश्रव का पुत्र श्राव नाम से विख्‍यात हुआ । श्रावका पुत्र श्रावस्‍त हुआ, जिसने श्रावस्‍तीपुरी बसायी थी। श्रावस्‍त के ही पुत्र महाबली बृहदश्रव थे । बृहदश्रव के ही पुत्र का नाम कुवलाश्रव था । कुवलाश्रव के इक्‍कीस हजार पुत्र हुए । वे सब के सब सम्‍पूर्ण विद्याओं में पारंगत, बलवान् और दुर्धर्ष वीर थे। कुवलाश्रव उत्तम गुणों में अपने पिता से बढ़कर निकले । महाराज । राजा बृहदश्रव ने यथासमय अपने उत्तम धर्मात्‍मा शुरवीर पुत्र कुवलाश्रव को राज्‍य पर अभिषिक्‍त कर दिया । शत्रुओं का संहार करने वाले बुद्धिमान राजा बृहदश्रव राजलक्ष्‍मी का भार पुत्र पर छोड़कर स्‍वयं तपस्‍या के लिये तपोवन में चले गये । राजन् । तदनन्‍तर द्विज श्रेष्‍ठ उत्तड़क ने यह सुना कि राजर्षि बृहदश्रव वन को चले जा रहे हैं । वे नर श्रेष्‍ठ नरेश सम्‍पूर्ण अस्‍त्र शस्‍त्रों के विद्वानों में सर्वोत्तम थे। विशाल ह्दय वाले महातेजस्‍वी उत्तड़क ने उनके पास जाकर उन्‍हें वन में जाने से रोका और इस प्रकार कहा । उत्तड़क बोले – महाराज। प्रजा की रक्षा करना आपका कर्तव्‍य है। अत: पहले वही आपको करना चाहिये, जिससे आपके कृपाप्रसाद से हमलोग निर्भय हो जायं । राजन् । आप जैसे महात्‍मा राजा से सुरक्षित होकर ही पृथ्‍वी सर्वथा भयशून्‍य हो जायगी । अत: आप वन में न जाइये । क्‍योंकि आपके लिये यहां रहकर प्रजाओं का पालन करने में जो महान् धर्म देखा जाता हैं, वैसा वन में रहकर तपस्‍या करने में नहीं दिखायी देता। अत: आपकी ऐसी समझ नहीं होनी चाहिये । राजेन्‍द्र । पूर्वकाल के राजर्षियो ने जिस धर्म का पालन किया है, वह प्रजाजनों के पालन में ही सुलभ है ऐसा धर्म और किसी कार्य में नहीं दिखायी देता । राजा के लिये प्रजाजनों का पालन करना ही धर्म है। अत: आपको प्रजावर्ग की रक्षा ही करनी चाहिये। भूपाल । मैं शान्तिपूर्वक तपस्‍या नहीं कर पा रहा हूं । मेरे आश्रम के समीप समस्‍त मरुप्रदेश में एक बालू से पूर्ण अर्थात् बालुकामय समुद्र है, उसके नाम है उज्‍जालक । उसकी लम्‍बाई-चौड़ाई कई योजन की है। वहां महान् बल और पराक्रम से सम्‍पन्न एक भयंकर दानवराज रहता है, जो मधु और कैटभ का पुत्र है। वह क्रूर-स्‍वभाव वाला राक्षस धुन्‍धु नाम से प्रसिद्ध है । राजन् । वह अमित पराक्रमी दानव धरती के भीतर छिपकर रहा करता है । महाराज । उसका नाश करके ही आपको वन में जाना चाहिये। भूपाल । वह सम्‍पूर्ण लोकों और देवताओं के विनाश के लिये कठोर तपस्‍या का आश्रय लेकर (पृथ्‍वी ) शयन करता है । राजन् । वह सम्‍पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्मजी से वर पाकर देवताओं, दैत्‍यों, राक्षसों, नागों, यक्षों और समस्‍त गन्‍धर्वो के लिये अवध्‍य हो गया है ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।