महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 179 श्लोक 16-29

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १४:२२, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकोनाशीत्यधिकशततम (179) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनाशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद

‘दानवश्रेष्‍ठ! आकाश में विचरने वाले बलवान् पक्षियों के समक्ष भी यथासमय मृत्‍यू आ पहुंचती है। ‘आकाश में जो छोटे–बड़े जयोतिर्मय नक्षत्रविचर रहे है, उन्‍हें भी मैं यथासमय नीचे गिरते देखता हूं। ‘इस प्रकार सारे प्राणियों को मैं मृत्‍यु के पाश में बद्ध देखता हूं, इसलिये तत्‍व को जानकर कृतकृत्‍य हो सबके प्रति समान भाव रखता हुआ सुख से सोता हूं। ‘यदि दैवैच्‍छा से अकस्‍मात् अधिक भोजन प्राप्‍त हो जाय तो मैं बहुत खा लेता हूं, ग्रासमात्र मिले तो उसी में संतुष्‍ट रहता हूं और न मिला तो बहुत दिनोंतक बिना खायें–पीये भी सो रहता हूं। ‘फिर कितने ही लोग आकर मुझे अनेक गुणों से सम्‍पन्‍न बहुत–सा अन्‍न खिला देते हैं। पुन कभी बहुत थोड़ा, कभी थोड़े–से भी थोड़ा भोजन मिलता है और कभी वह भी नहीं मिलता। ‘कभी चावल की कनी खाता हूं, कभी तिल की खली ही खाकर रह जाता हूं और कभी अगहनी के चावल का भात भरपेट खाता हूं। इस प्रकार मुझे बढि़या–घटिया सभी तरह के भोजन बारंबार प्राप्‍त होते रहते हैं। ‘कभी पलंगपर सोता हूं, कभी पृथ्‍वी पर ही पड़ा रहता हूं और कभी–कभी मुझे महल के भीतर बिछी हुई बहुमूल्‍य शय्‍या भी उपलब्‍ध हो जाती है। ‘मैं कभी तो चिथड़े अथवा वल्‍कल पहनकर रहता हूं, कभी सनके, कभी रेशम के और कभी मृगचर्म के वस्‍त्र धारण करता हूं तथा किसी एक काल में बहुत–से बहुमूल्‍य वस्‍त्रों को भी पहन लेता हूं । ‘यदि दैववश मुझे कोई धर्मानुकूल भोग्‍य पदार्थ प्राप्‍त हो जाय तो मैं उससे द्वेष नहीं करता हूं और प्राप्‍त न होने पर किसी दुर्लभ भोग की भी कभी इच्‍छा नहीं करता। मैं सदा पवित्रभाव से रहकर इस अजगरवृत्ति का अनुसरण करता हूं। यह अत्‍यंत सुदृढ, मृत्‍यु से दूर रखने वाली, कल्‍याणमय, शोकहीन,शुद्ध, अनुपम और विद्वानों के मत के अनुकूल है। मूर्ख मनुष्‍य न तो इसे मानते है और न इसका सेवन ही करते है। ‘मेरी बुद्धि अविचल है, मैं अपने धर्मसे च्‍युत नहीं हुआ हूं, मेरा सांसारिक व्‍यवहार परिमित हो गया है, मुझे उत्तम और अधम का ज्ञान है, मेरे हृदय से भय, राग–द्वेष, लोभ और मोह दूर हो गये है तथा पवित्र भाव से रहकर इस अजगरोचित व्रतका आचरण करता हूं। ‘यह अजगर–संबंधी व्रत मेरे हृदय को सुख देने वाला है। इसमें भक्ष्‍य, भोज्‍य, पेय और फल आदि के मिलने की कोई नियत व्‍यवस्‍था नहीं रहती- अनियतरूप से जो कुछ मिल जाय, उसी से निर्वाह करना होता है। इस व्रत में प्रारब्‍ध के परिणाम के अनुसार देश और कालका विभाग नियत है। विषयलोलुप नीच पुरूष इसका सेवन नहीं करते, मैं पवित्रभाव से इसी व्रत का आचरण करता हूं। ‘जो यह मिले, वह मिले, इस प्रकार तृष्‍णा से दबे रहते है और धन न मिलने के कारण निरंतर विषाद करते है, ऐसे लोगों की दशा अच्‍छी तरह देखकर तात्विक बुद्धि से सम्‍पन्‍न हुआ मैं पवित्रभाव से इस आजगरव्रत का आचरण करता हूं। ‘मैं बारंबार देख्‍ता हूं कि श्रेष्‍ठ मनुष्‍य भी धन के लिये दीनभाव से नीच पुरूष का आश्रय लेते है। यह देखकर मेरी रूचि प्रशांत हो गयी है। अत: मैं अपने स्‍वरूप को प्राप्त और सर्वथा शांत हो गया हूं और पवित्रभाव से इस आजगर- व्रत का आचरण करता हूं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।