महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 185 श्लोक 1-17
पञ्चाशीत्यधिकशततम (185) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
शरीर के भीतर जठरानल तथा प्राण–अपान आदि वायुओं की स्थिति आदि के वर्णन
भारद्वाजने पूछा- प्रभों! शरीर के भीतर रहने वाली अग्नि पार्थिव धातु (पांचभौतिक देह) का आश्रय लेकर कैसे रहती है और वायु भी उसी पार्थिव धातु का आश्रय लेकर अवकाश–विशेष के द्वारा देह को कैसे चेष्टाशील बनाती है? भृगुने कहा- ब्रहमन्! निष्पाप महर्षे! मैं तुमसे वायु की गति का वर्णन करता हूं। प्रबल वायु प्राणियों के शरीरों को किस प्रकार चेष्टाशील बनाती है? यह बताता हूं। आत्मा मस्तक के रन्ध्रस्थान में स्थित होकर सम्पूर्ण शरीर की रक्षा करता है और प्राण मस्तक तथा अग्नि दोनों में स्थित होकर शरीर को चेष्टाशील बनाता है। वह प्राण से संयुक्त आत्मा ही जीव है, वही सम्पूर्ण भूतों का आत्मा सनातन पुरूष है। वही मन, बुद्धि, अंहकार, पांचों भूत और विषयरूप हो रहा है। इस प्रकार (जीवात्मा से संयुक्त हुए) प्राण के द्वारा शरीर के भीतर के समस्त विभाग तथा इन्द्रिय आदि सारे बाह्म अंग परिचालित होते हैं। तत्पश्चात् समान वायु के रूप से परिणत हो प्राण ही अपनी–अपनी गति के आश्रित शरीर का संचालक होता है। अपान वायु जठरानल, मूत्राशय और गुदा का आश्रय ले मल एवं मूत्र को निकालता हुआ ऊपर से नीचे को घूमता रहता है। जिस एक ही वायु की प्रसत्न, कर्म और बल तीनों में प्रवृति होती है, उसे अध्यात्मतत्व के जानने वाले पुरूषों ने उदान कहा है। जो मनुष्यों के शरीरों में और उनकी समस्त संधियों में भी व्याप्त है, उस वायु को ‘व्यान’ कहते हैं। शरीर के समस्त धातुओं में व्याप्त जो अग्नि है, वह समान वायु द्वारा संचालित होती है। वह समान वायु ही शरीर गत रसों, धातुओं (इन्द्रियों) और दोषों (कफ आदि) का संचालन करती हुई सम्पूर्ण शरीर में स्थित है। अपान और प्राण के मध्यभाग (नाभि) में प्राण और अपान दोनों का आश्रय लेकर स्थित हुआ जटरानल खाये हुए अन्न को भलीभांति पचाता है। मुख से लेकर पायु (गुदा) तक जो महान् स्त्रोत (प्राण के प्रवाहित होने का मार्ग) है, वही अन्तिम छोर में गुदा के नाम से प्रसिद्ध है। उसी महान् स्त्रोत से देहधारियों के अन्य सभी छोटे–छोटे स्त्रोत (प्राणों के संचरण के मार्ग अथवा नाडीसमुदाय) प्रकट होते हैं। उन स्त्रोतों द्वारा सारे अंगों में प्राणों का सम्बन्ध या प्रसार होने से उसके साथ रहने वाले जठरानल का भी सम्बन्ध या प्रसार हो जाता है। प्राणियों के शरीर में जो गर्मी का अनुभव होता है, उसे उस जठरानल का ही ताप समझना चाहिये। वही देहधारियों के खाये हुए अन्न को पचाता है। अग्नि के वेग से बहता हुआ प्राण गुदा के निकट जाकर प्रतिहत हो जाता है; फिर ऊपर की ओर लौटकर समीपवर्ती अग्नि को भी ऊपर उठा देता है। नाभि से नीचे पक्वाशय और ऊपर आमाशय स्थित है तथा नाभिके मध्यभाग में शरीरसम्बन्धी सभी प्राण स्थित हैं। वे समस्त प्राण हृदय से इधर–उधर और ऊपर–नीचे प्रस्थान करते हैं; इसलिये दस[१] प्राणों के परिचालित होकर सारी नाड़ियां अन्न का रस वहन करती हैं। यह मुख से लेकर गुदातक का जो महान् स्त्रोत है, वह योगियों का मार्ग है। उससे वे योगी परमपद को प्राप्त होते हैं, जिन्होंने सारे क्लेशों को जीत लिया है, जो सर्वत्र समदर्शी और धीर हैं तथा जिन महात्माओं ने सुषुम्णा नाडी़ के द्वारा मस्तक में पहुंचकर वहीं अपने–आपको स्थित कर दिया है। प्राणियों के प्राण, अपान आदि सभी वायुओं में स्थापित हुई जठराग्नि शरीर में ही रहकर सदा अग्नि–कुण्ड में रखी हुई अग्नि की भांति प्रज्वलित होती रहती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्राण वायु के दस भेद इस प्रकार हैं-प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान तथा नाग, कूर्म, कृकल, देवदत और धनंजय।