महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 187 श्लोक 15-26

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सप्‍ताशीत्‍यधिकशततम (187) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍ताशीत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 15-26 का हिन्दी अनुवाद

महर्षे! जीव किसी की कही हुई बात को पहले दोनों कानों से सुनता है; परंतु यदि मन में व्यग्रता रही तो वह सुन‍कर भी नहीं सुनता; इसलिये मन के अतिरिक्‍त किसी जीव की सत्ता मानना व्यर्थ है। जो भी दृश्‍य पदार्थ है, उसे प्राणी तभी देख पाता है जब कि उसकी दृष्टि के साथ मन का संयोग हो। यदि मन व्याकुल हो तो उसकी आंख देखती हुई भी नहीं देख पाती है। निद्रा के वश में पडा़ हुआ पुरूष (सम्पूर्ण इन्द्रियों के होते हुए भी) न देखता है, न सूंघता है, न सुनता है, न बोलता है और न स्पर्श तथा रस का ही अनुभव करता है। अत: य‍ह जिज्ञासा होती है कि इस शरीर के अंदर कौन हर्ष और क्रोध करता है? किसे शोक और उद्वेग होता है? इच्छा, ध्‍यान, द्वेष और बातचीत कौन करता है? भृगुजी ने कहा- मुने! मन भी पांचभोतिक ही है; अत: वह पांचों भूतों से भिन्न कोई दूसरा तत्‍त्‍व नहीं है। एकमात्र अन्तरात्मा ही इस शरीर का भार वहन करता है, वहीं रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा शब्‍द का और दूसरे भी जो गुण हैं, उनका अनुभव करता है । वह अन्तरात्मा पांचों इन्द्रियों के गुणों को धारण करने वाले मन का द्रष्‍टा है ओर वही इस पाञ्चभौतिक शरीर के सम्पूर्ण अवयवों में व्याप्‍त होकर सुख–दु:ख का अनुभव करता है। जब उसका शरीर के साथ सम्बन्ध छूट जाता है, तब इस शरीर को सुख-दु:ख का भान नहीं होता है (इससे मन के अतिरिक्‍त उसके साक्षी आत्मा की सत्ता स्वत: सिद्ध हो जाते है)। जब पाञ्चभौतिक शरीर में रूप, स्पर्श और गर्मी का भान नहीं होता, उस अवस्‍था में शरीर स्थित अग्नि के शान्त हो जाने पर जीवात्मा इस शरीर को त्यागकर भी नष्‍ट नहीं होता। यह सब प्रपंच जलमय है, प्राणियों का यह शरीर भी प्राय: जलमय ही हैं। उसमें मन में रहने वाला आत्मा विद्यमान है। वही सम्पूर्ण भूतों में लोकस्त्रष्‍टा ब्रह्मा के नाम से विख्‍यात है; क्योंकि समस्त जीवों के संघातका ही नाम ब्रह्मा है । आत्मा जब प्राकृत गुणों से युक्‍त होता है, तब उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं और उन्हीं गुणों से जब वह मुक्‍त हो जाता है, तब परमात्मा क‍हलाता है । तुम क्षेत्रज्ञ को आत्मा ही समझो। वह सर्वलोक-हितकारी है। इस शरीर में रहकर भी वह कमल–पत्र पर पडे़ हुए जलबिन्दु की तरह वास्तव में इससे पृथक ही है। उस क्षेत्रज्ञ को सदा आत्‍मा ही जानो। वह सम्पूर्ण जगत् का हितस्वरूप है। तमोगुण, रजोगुण और सत्‍त्‍वगुण- इन तीनों प्राकृत गुणों को प्रकृति–स्थित होने के कारण जीव के गुण समझो। चेतन जीव के सम्बन्ध से उपर्युक्‍त जीव के गुणों को चेतनायुक्‍त कहते है।[१] वह जीव स्वयं चेष्‍टा करता है और सबसे चेष्‍टा करवाता है। शरीर के तत्‍त्‍व को जानने वाले पुरूष इस क्षेत्रज्ञ आत्मा से उस परमात्मा को श्रेष्‍ठ बताते हैं, जिसने भू:भुव: आदि सातों लोकों को उत्पन्न किया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जैसे लोहा दाहक एवं दीप्तिमान् हो उठता है, उसी प्रकार चेतन जीव के संसर्ग से उसके सत्वादि गुण को भी चैतन्ययुक्त कहते है।

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