महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 62 श्लोक 1-10
द्विषष्टितम (62) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
- ब्राह्मणधर्म और कत्र्तव्यपालन का महत्व
युधिष्ठिर बोले-पितामह! अब आप ऐसे धर्मों का वर्णन कीजिये; जो कल्याणमय, सुखमय, भविष्य में अभ्युदयकारी, हिंसारहित, लोकसम्मानित, सुखसाधक तथा मुझ-जैसे लोगोंके लिये सुखपूर्वक आचरण में लाये जा सकते हों। भीष्मजी ने कहा-प्रभो ! भरतवंशावतंस युधिष्ठिर! चारों आश्रम ब्राह्मणों के लिये ही विहित हैं। अन्य तीनों वर्णों के लोग उन सभी आश्रमों का अनुसरण नहीं करते हैं। राजन्! क्षत्रिय के लिये शास्त्र में बहुत-से ऐसे स्वर्गसाधक कर्म बताये गये हैं, जो हिंसाप्रधान हैं, जैसे युद्ध। परंतु ये कर्म ब्राह्मणके लिये आदर्श नहीं हो सकते; क्योंकि क्षत्रियके लिये सभी प्रकारके कर्मों का यथोचित विधान है। जो ब्राह्मण होकर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंके कर्मों का सेवन करता है, वह मन्दबुद्धि पुरुष इस लोकमें निन्दित और परलोकमें नरकगामी होता है। पाण्डुनन्दन ! लोक में दास, कुत्ते, भेडिये तथा अन्य पशुओं के लिये जो निन्दासूचक संज्ञा दी गयी है, अपने वर्णधर्म के विपरीत कर्ममें लगे हुए ब्राह्मण के लिये भी वही संज्ञा दी जाती है। जो ब्राह्मण यज्ञ करना-कराना, विद्या पढना-पढाना तथा दान लेना और देना-इन छः कर्मों मे ही प्रवृत्त होता है, चारों आश्रमों मे स्थित हो उनके सम्पूर्ण धर्मों का पालन करता है, धर्ममय कवच से सुरक्षित होता है और मन को वश में किये रहता है, जिसके मन में कोई कामना होती है, जो बाहर-भीतर से शुद्ध, तपस्यापरायण और उदार होता है, उसे अविनाशी लोक प्राप्त होता हैं। जो पुरुष जिस अवस्था में, जिस देश अथवा काल में, जिस उद्देश्य से जैसा कर्म करता है, वह (उसी अवस्थामें वैसे ही देश अथवा कालमें) वैसे भावसे उस कर्मका वैसा ही फल पाता है। राजेन्द्र! वैश्यकी व्याज लेनेवाली वृत्ति, खेती और वाणिज्य के समान तथा क्षत्रिय के प्रजापालनरूप कर्म के समान ब्राह्मणों के लिये वेदाभ्यासरूपी कर्म ही महान् है-ऐसा तुम्हें समझना चाहिये। काल के उलट फेर से प्रभावित तथा स्वभाव से प्रेरित हुआ मुनष्य विवश सा होकर उत्तम, मध्यम अधम कर्म करता है।
« पीछे | आगे » |