महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 83 श्लोक 1-16

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त्रयशीतिम (83) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयशीतिम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
सभासद आदि के लक्षण, गुप्‍त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्‍त मनत्रणा की विधि एवं स्‍थान का निर्देश

युधिष्ठिर ने पूछा-प्रजापालक पितामह! राजा के सभासद्, सहायक, सुहृद्, परिच्छद (सेनापति आदि) तथा मन्त्री कैसे होने चाहिये? भीष्मजी ने कहा -बेटा! जो लज्जाशील, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, सरल और किसी विषय पर अच्छी तरह प्रवचन करने में समर्थ हों, ऐसे ही लोग तुम्हारे सभासद् होने चाहिऐ। भरतनन्दन युधिष्ठिर! मन्त्रियों को, अत्यन्त शूरवीर पुरूषों को, विद्धान् ब्राह्यणों को, पूर्णतया संतुष्ट रहने वालों को और सभी कार्यो के लिये उत्साह रखने वालों को- इन सब लोगों को तुम सभी आपत्तियों के समय सहायक बनाने की इच्छा करना । जो कुलीन हो, जिसका सदा सम्मान किया जाय, जो अपनी शक्ति को छिपावे नहीं तथा राजा प्रसन हो या अप्रसन हो, पीडिता हो अथवा हताहत हो, प्रत्येक अवस्था में जो बारंबार उसका अनुसरण करता हो, वही सुहद् होने योग्य है। जे उत्तम कुल और अपने ही देश में उत्पन्न हुए हों, बुद्धिमान, रूपवान् बहुज्ञ, निर्भर और अनुरक्त हों, वे ही तुम्हारे परिच्छद ( सेनापति आदि ) होने चाहिये । तात! जो निन्दित कुल में उत्पत्र, लोभी, क्रूर और निर्लज्ज हैं, वे तभी तक तुम्हारी सेवा करेंगे, जब तक उनके हाथ गीले रहेंगे। अच्छे कुल में उत्पन्न, शीलवान् इशारे समझने वाले, निष्ठुरतारहित (दयालु), देशकाल के विधान को समझने वाले और स्वामि के अभीष्ट कार्य की सिद्धि तथा हित चाहने वाले मनुष्यों को राजा सदा सभी कार्यी के लिये अपना मन्त्री बनावे। तुम जिन्हें अपना प्रिय मानते हो, उन्हें धन, सम्मान, अघ्र्य, सत्कार तथा भित्र-भित्र प्रकार के भोगों द्धारा संतुष्ट करो, जिससे वे तुम्हारे प्रियजन धन और सुख के भागी हों। जिनका सदाचार नष्ट नहीं हुआ है, जो विद्धान्, सदाचारी और उत्तम व्रत का पालन करने वाले है; जिन्हें सदा तुमसे अभीष्ट वस्तु के लिये प्रार्थना करने की आवश्यकता पडती है तथा जो श्रेष्ठ और सत्यवादी हैं, वे कभी तुम्हारा साथ नहीं छोड सकते। जो अनार्य और मन्दबुद्धि हैं, जिन्हें की हुई प्रतिज्ञा के पालन का ध्यान नहीं रहता तथा जो कई बार अपनी प्रतिज्ञा गिर चुके हैं, उनसे अपने को सुरक्षित रखने क लिये तुम्हें सदा सावधान रहना चाहिये। एक ओर एक व्यक्ति हो और दुसरी ओर एक समूह हो तो समूह हो तो समूह को छोडकर एक व्यक्ति को ग्रहण करने की इच्छा न करे। परंतु जो एक मनुष्य बहुत मनुष्यों की ग्रहण करना पडे ऐसी परिस्थिति में कल्याण चाहने वाले पुरूष को उस एक के लिये समूह को त्याग देना चाहिऐ। श्रेष्ठ पुरूष का लक्षण इस प्रकार है- जिसका पराक्रम देखा जाता हो, जिसके जीवने में कीर्ति की प्रधानता हो, जो अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर रहता हो, सामथ्र्यशाली पुरूषों का सम्मान करता हो, जो स्पर्धा के अयोग्य पुरूषों ईष्र्या न रखता हो, कामना भय, क्रोध अथवा लोभ से धर्म का उल्लंघन न करता हो, जिसमें अभिमान का अभाव हो, जो सत्यवान् क्षमाशील, जितात्मा तथा सम्मानित हो और जिसकी सभी अवस्थाओं में परीक्षा कर ली गयी हो, ऐसा पुरूष ही तुम्हारी गुप्त मन्त्रणा में सहायक होना चाहिऐ । कुन्तीनन्दन! उत्तम कुल में जन्म होना, सदा श्रेष्ठ कुल के सम्पर्क में रहना, सहनशीलता, कार्यदक्षता, मनस्विता, शूरता, कृतज्ञता और सत्यभाषण- ये ही श्रेष्ठ पुरूष के लक्षण हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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