महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 86 श्लोक 1-14

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षडशीतितम (86) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षडशीतितम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन, उसके लिये प्रजापालनसम्बन्धी व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह ! राजा को स्वयं कैसे नगर में निवास करना चाहिये? वह पहले से बनी हुई राजधानी में रह या नये नगर का निर्माण कराकर उसमें निवास करे, यह मुझे बताइये? भीष्मजी ने कहा-भारत ! कुन्तीनन्दन ! पुत्र, कुटुम्बीजन तथा बन्धुवर्ग के साथ राजा जिस नगर में निवास करे, उसमें जीवन-निर्वाह तथा रक्षा की व्यवस्था के सम्बन्ध में तुम्हारा प्रश्न करना न्याय संगत हैं। इसलिये मैं तुम्हारें समक्ष दुर्ग निर्माण की क्रिया का विशेष रूप से वर्णन करूँगा। तुम इस विषय को सुनकर वैसा ही करना और प्रयत्नपूर्वक दुर्ग का निर्माण कराना। जहाँ सब प्रकार की सम्पत्ति प्रचुर मात्रा में भरी हुई हो तथा जो स्थान बहुत विस्तृत हो, वहाँ छः प्रकार के दुर्गों का आश्रय लेकर राजा को नये नगर बसाने चाहिये। उन छहों दुर्गों के नाम इस प्रकार हैं-धन्वदुर्ग[१], महीदुर्ग[२], गिरीदुर्ग[३], मनुष्यदुर्ग[४], जलदुर्ग[५] तथा वनदुर्गं[६] जिस नगर में इनमें से कोई-न-कोई दुर्ग हो, जहाँ अन्न और अस्त्र-शस्त्रों की अधिकता हो, जिसके चारों ओर मजबूत चहारदीवारी और गहरी एवं चैड़ी खाई बनी हो, जहाँ हाथी, घोड़े और रथों की बहुतायत हो, जहाँ विद्वान और कारीगर बसे हों, जिस नगर में आवश्यक वस्तुओं के संग्रह से भरे हुए कई भण्ड़ार हों, जहाँ धार्मिक तथा कार्यकुशल मनुष्यों का निवास हो, जो बलवान् मनुष्य, हाथी और घोड़ों से सम्पन्न हो, चैराहे तथा बाजार जिसकी शोभा बढ़ा रहे हों, जहाँ का न्याय-विचार एवं न्यायालय सुप्रसिद्ध हो, जो सब प्रकार से शान्तिपूर्ण हो, जहाँ कहीं से कोई भय या उपद्रव न हो, जिसमें रोशनी का अच्छा प्रबन्ध हो, संगीत और वाद्यों की ध्वनि होती रहती हो, जहाँ का प्रत्येक घर सुन्दर और सुप्रशस्त हो, जिसमें बडे़-बड़े शूरवीर और धनाढ्य लोग निवास करते हों, वेदमन्त्रों की ध्वनि गूँजती रहती हो तथा जहाँ सदा ही सामाजिक उत्सव और देवपूजन का क्रम चलता रहता हो, ऐसे नगर के भीतर अपने वश में रहने वाले मन्त्रियों तथा सेना के साथ राजा को स्वयं निवास करना चाहियें। राजा को चाहिये कि वह उस नगर में कोष, सेना, मित्रों की संख्या तथा व्यवहार को बढ़ावे। नगर तथा बाहर के ग्रामों में सभी प्रकार के दोषों को दूर करें। अन्नभण्ड़ार तथा अस्त्र-शस्त्रों के संग्रहालय को प्रयत्नपूर्वक बढ़ावे, सब प्रकार की वस्तुओं के संग्रहालयों की भी वृद्धि करे, यन्त्रों तथा अस्त्र-शस्त्रों के कारखानों की उन्नति करे। काठ, लोहा, धान की भूसी, कोयला, बाँस, लकड़ी, सींग, हड्डी, मज्जा, तेल, घी, चरबी, शहद, औषधसमूह, सन, राल, धान्य, अस्त्र-शस्त्र, बाण, चमड़ा, ताँत, बेंत तथा मूँज और बल्वज की रस्सी आदि सामग्रियों का संग्रह रखे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. धन्वदुर्ग का दूसरा नाम मरूदुर्ग भी है। जिसके चारों ओर बालू का घेरा हो, उस किले को धन्वदुर्ग कहते हैं।
  2. समतल जमीन के अंदर बना हुआ किला या तहखाना महीदुर्ग कहलाता हैं।
  3. पर्वतशिखर पर बना हुआ वह किला जो चारों ओर से उत्तुंग पर्वतमालाओं द्वारा घिरा हुआ हो, गिरीदुर्ग कहलाता हैं।
  4. फौजी किले का ही नाम मनुष्य दुर्ग हैं।
  5. जिसके चारों ओर जल कर घेरा हो, वह जलदुर्ग कहलाता हैं।
  6. जो स्थान कटवाँसी आदि के घने जंगल से घिरा हुआ हो, उसे वनदुर्ग कहा गया हैं।

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