महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 85 श्लोक 15-34

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पन्चाशीतिम (85) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पन्चाशीतिम अध्याय: श्लोक 15-34 का हिन्दी अनुवाद

जो राजा अन्याय एवं अधर्मंपूर्वक प्रजा का पालन करता हैं, उसके हृदय में भय बना रहता है तथा उसका परलोक भी बिगड़ जाता हैं। नरश्रेष्ठ ! धर्मं ही जिसकी जड़ है, उस धर्मांसन अथवा न्यायासन पर बैठकर जो राजा, मन्त्री अथवा राजकुमार धर्मंपूर्वक प्रजा की रक्षा नहीं करता तथा राजा का अनुसरण करने वाले राज्य के दूसरे अधिकारी भी यदि अपने को सामनें रखकर प्रजा के साथ उचित बर्ताव नहीं करते हैं तो वे राजा के साथ ही स्वयं भी नरक में गिर जाते हैं। बलवानों के बलात्कार (अत्याचार) से पीडि़त हो अत्यन्त दीनभाव से पुकार मचाते हुए अनाथ मनुष्यों को आश्रय देने वाला उनका संरक्षक या स्वामी राजा ही होता हैं। जब कोई अभियोंग उपस्थित हो और उसमें उभय पक्षद्वारा दो प्रकार की बातें कही जाये, तब उसमें यथार्थता का निर्णय करने के लिये साक्षी का बल श्रेष्ठ माना गया हैं (अर्थात् मौके का गवाह बुलाकर उससे सच्ची बात जानने का प्रयत्न करना चाहिये)। यदि कोई गवाह न हो तथा उस मामले की पैरवी करने वाला कोई मालिक-मुख्तार न दिखायी दे तो राजा को स्वयं ही विशेष प्रयत्न करके उसकी छानबीन करनी चाहिये। तत्पश्चात् अपराधियों को अपराध के अनुरूप दण्ड देना चाहिये। अपराधी धनी हो तो उसको उसकी सम्पति से वन्चित कर दे और निर्धन हो तो उसे बन्दी बनाकर कारागार में डाल दे। जो अत्यन्त दुराचारी हों, उन्हें मार-पीटकर भी राजा राह पर लाने का प्रयत्न करें तथा जो श्रेष्ठ पुरूष हों, उन्हें मीठी वाणी से सान्त्वना देते हुए सुख-सुविधा की वस्तुएँ अर्पित करके उनका पालन करें। जो राजा का वध करने की इच्छा करे, जो गाँव या घर में आग लगावे, चोरी करे अथवा व्यभिचार द्वारा वर्णसंकरता फैलाने का प्रयत्न करे, ऐसे अपराधी का वध अनेक प्रकार से करना चाहिये। प्रजानाथ ! जो भली-भाँति विचार करके अपराधी को उचित दण्ड देता है और अपने कर्तव्यपालन के लिये सदा उद्यत रहता है, उस राजा को वध और बन्ध का पाप नहीं लगता, अपितु उसे सनातन धर्मं की ही प्राप्ति होती हैं। जो अज्ञानी नरेश बिना विचारे स्वेच्छापूर्वक दण्ड देता हैं, वह इस लोक में तो अपयश का भागी होता हैं और मरने पर नरक में पड़ता हैं। राजा दूसरे के अपराध पर दूसरों को दण्ड न दे, बल्कि शास्त्र के अनुसार विचार करके अपराध सिद्ध होता हो तो अपराधी को कैद करे और सिद्ध न होता हो तो उसे मुक्त कर दे। राजा कभी किसी आपत्ति में भी किसी के दूत की हत्या न करे। दूत वध करने वाला नरेश अपने मन्त्रियों सहित नरक में गिरता हैं। क्षत्रिय धर्मं मे तत्पर रहने वाला जो राजा अपने स्वामी के कथनानुसार यथार्थ बातें कहने वाले दूत को मार डालता है, उसके पितरों को भू्रणहत्या के फल का भोग करना पड़ता हैं। राजा के दूत को कुलीन, शीलवान्, वाचाल, चतुर, प्रिय वचन बोलने वाला, संदेश को ज्यो-का-त्यों कह देने वाला तथा स्मरणशक्ति से सम्पन्न- इस प्रकार सात गुणों से युक्त होना चाहियें। राजा के द्वार की रक्षा करने वाले प्रतीहारी (द्वारपाल) में भी ये गुण होने चाहिये। उसका शिरोरक्षक (अथवा अंगरक्षक) भी इन्हीं गुणों से सम्पन्न हो। सन्धि-विग्रह के अवसर को जानने वाला, धर्मशास्त्र का तत्वज्ञ, बुद्धिमान, धीर, लज्जावान्, रहस्य को गुप्त रखने वाला, कुलीन, साहसी तथा शुद्ध हृदय वाला मन्त्री ही उत्तम माना जाता हैं। सेनापति भी इन्हीं गुणों से युक्त होना चाहिये। इनके सिवा वह व्यूहरचना (मोर्चाबंदी), यन्त्रों के प्रयोग तथा नाना प्रकार के अन्याय अस्त्र-शस्त्रों को चलाने की कला का तत्त्वज्ञ-विशेष जानकार हो, पराक्रमी हो, सर्दी, गर्मी, आँधी और वर्षां के कष्ट को धैर्यपूर्वक सहने वाला तथा शत्रुओं के छिद्र को समझने वाला हो। राजा दूसरों के मन में अपने ऊपर विश्वास पैदा करे; परंतु स्वयं किसी का भी विश्वास न करे। राजेन्द्र ! अपने पुत्रों पर भी पूरा-पूरा विश्वास करना अच्छा नहीं माना गया हैं। निष्पाप युधिष्ठिर ! यह नीतिशास्त्र का तत्त्व है, जिसे मैंने तुम्हें बताया हैं। किसी पर भी पूरा विश्वास न करना नरेशों का परम गोपनीय गुण बताया जाता हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वं में मन्त्रीविभागविषयक पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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