महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 98 श्लोक 45-51
अष्टनवतितम (98) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
युद्ध में मारे गये वीर के लिये उसके आत्मीयजन न तो स्नान करना चाहते हैं, न अशौच सम्बन्धी कृत्य का पालन, न अन्न दान (श्राद्ध) करने की इच्छा करते है, और न जलदान (तर्पण) करने की। उसे जो लोक प्राप्त होते हैं, उन्हें मुझ से सुनो। युद्ध स्थल में मारे गये शूर वीर की ओर सहस्त्रों सुन्दरी अप्सराएँ यह आशा लेकर बड़ी उतावली के साथ दौड़ी जाती हैं कि यह मेरा पति हो जाय। जो युद्धधर्म का निरन्तर पालन करता है, उसके लिये यही तपस्या, पुण्य, सनातनधर्म तथा चारों आश्रमों के नियमों का पालन है। युद्ध में वृद्ध, बालक और स्त्रियों का वध नहीं करना चाहिये, किसी भागते हुए की पीठ में आघात नहीं करना चाहिये, जो मुँह में तिनका लिये शरण में आ जाय और कहने लगे कि मैं आपका ही हूँ, उसका भी वध नहीं करना चाहिये। जम्भा वृत्रा सुर, बलासुर, पाकासुर, सैकड़ौं माया जानने वाले विरोचन, दुर्जय वीर नमुचि, विविध माया विशारद शम्बरासुर, दैत्यवंशी विप्रचित्ति, सम्पुर्ण दान वदल तथा प्रहृाद को भी युद्ध में मार कर मैं देवराज के पद पर प्रतिष्ठित हुआ हूँ। भीष्म जी कहते हैं-युधिष्ठिर! इन्द्र का यह वचन सुनकर राजा अम्बरीषने मन-ही-मन इसे स्वीकार किया और वे यह मान गये कि योद्धाओं को स्वतः सिद्धि प्राप्त होती है।
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