महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 53 श्लोक 57-70

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तिरपनवॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: तिरपनवॉं अध्याय: श्लोक 37-70 का हिन्दी अनुवाद

रास्ते से किसी राहगीर को हटाना नहीं चाहिये, मैं उन सब को धन दूंगा। मार्ग में जो ब्राह्माण मुझझे जिस वस्तु की प्रार्थना करेंगे मैं उनको वही वस्तु प्रदान करूंगा । मैं सबको उनकी इच्छा के अनुसार धन और रत्न बाटूंगा। अतः इन सब के लिये पूरा-पूरा प्रबंध कर लो। पृथ्वीनाथ। इसके लिये मन में कोई विचार न करो । मुनि का यह वचन सुनकर राजा ने अपने सेवकों से कहा- ‘ये मुनि जिस-जिस वस्तु के लिये आज्ञा दें, वह सब निःशंक होकर देना’। राजा की इस आज्ञा के अनुसार नाना प्रकार के रत्न, स्त्रियां, वाहन, बकरे, भेड़े, सोने के अलंकार, सोना और पर्वतोपम गजराज- ये सब मुनि के पीछे-पीछे चले। राजा के सम्पूर्ण मंत्री भी इन वस्तुओं के साथ थे। उस समय सारा नगर आर्त होकर हाहाकार कर रहा था। इतने ही में मुनि ने सहसा चाबुक उठाया और उन दोनों की पीठ पर जोर से प्रहार किया। उस चाबुक का अग्र भाग बड़ा तीखा था, उसकी करारी चोट पड़ते ही राजा-रानी की पीठ और कमर में घाव हो गया फिर भी वे निर्विकार भाव से रथ ढोते रहे । पचास रात तक उपवास करने के कारण वे बहुत दुबले हो गये थे, उनक सारा शरीर कांप रहा था; तथापि वे वीर दम्पति किसी प्रकार साहस करके उस विशाल रथ का बोझ ढो रहे थे । महाराज। वे दोनों बहुत घायल हो गये थे। उनकी पीठ पर जो अनेक घाव हो गये थे उनसे रक्त बह रहा था। खून से लथपथ होने कारण वे खिले हुए पलाश के फूलों के समान दिखाई देते थे । पुरवासियों का समुदाय उन दोनों की यह दुर्दशा देखकर शोक से अत्यन्त व्याकुल हो रहा था। सब लोग मुनि के शाप से डरते थे; इसलिये कोई कुछ बोल नहीं रहा था । दो-दो आदमी अलग-अलग खड़े होकर आपस में कहने लगे- ‘भाइयों। सब लोग मुनि की तपस्या का बल तो देखो, हम लोग क्रोध में भरे हुए हैं तो भी मुनिश्रेष्ठ की ओर यहां आंख उठाकर देख भी नहीं सकते। ‘इन विशुद्व अन्तःकरण वाले महर्षि भगवान च्यवन की तपस्या का बल अद्भुत है। तथा महाराज और महारानी का धर्य भी कैसा अनूठा है। यह अपनी आंखो देख लो । ‘ये इतने थके होने पर भी कष्ट उठाकर इस रथ को खींचे जा रहे हैं। भृगुनन्दन च्यवन अभी तक इनमें कोई विकार नहीं देख सके हैं। भीष्मजी जी कहते हैं- युधिष्ठिर। भृगुकुल शिरोमणि मुनिवर च्यवन ने जब इतने पर भी राजा और रानी के मन में कोई विकार नहीं देखा तब वे कुबेर की भांति उनका सारा धन लुटाने लगे । परंतु इस कार्य में भी राजा कुशिक बड़ी प्रसन्नता के साथ ऋषि के आज्ञा का पालन करने लगे। इससे मुनिश्रेष्ठ भगवान च्यवन बहुत संतुष्ठ हुए । इस उत्तम रथ से उतर कर उन्होंने दोनों पति-पत्नि को भार ढोने के कार्य से मुक्त कर दिया। मुक्त करके इन दोनों से विधिपूर्वक वार्तालाप किया। भारत। भृगुपुत्र च्यवन उस समय स्नेह और प्रसन्नता से युक्त गम्भीर वाणी में बोले- मैं तुम दोनों को उत्तम वर देना चाहता हूं, बतलाओ क्या दूं? भरतभूषण। यह कहते-कहते मुनिश्रेष्ठ च्यवन चाबुक से घायल हुए उन दोनों सुकुमार राज दम्पति की पीठ पर स्नेहवश अमृत के समान कोमल हाथ फेरने लगे । उस समय राजा ने भृगुपुत्र च्यवन से कहा- अब हम दोनों को यहां तनिक भी थकावट का अनुभव नहीं हो रहा है। हम दोनों आपके प्रभाव से पूर्ण विश्राम-सुख का अनुभव कर रहे हैं। जब दोनों ने इस प्रकार कहा, तब भगवान च्यवन पुनः हर्ष में भरकर बोले- मैंने पहले जो कुछ कहा है, वह व्यर्थ नहीं होगा, पूर्ण होकर ही रहेगा।‘पृथ्वीनाथ। यह गंगा का तट बड़ा ही रमनीय स्थान है। मैं कुछ काल तक व्रत परायण होकर यहीं रहूंगा । ‘बेटा। इस समय तुम अपने नगर में जाओ और अपनी थकावट दूर करके कल सबेरे अपनी पत्‍नी के साथ फिर यहां आना। नरेश्‍वर। कल पत्‍नी सहित तुम मुझे यहीं देखोगे। ‘तुम्हें अपने मन में खेद नहीं करना चाहिये अब तुम्हारे कल्याण का समय उपस्थित हुआ है। तुम्हारे मन में जो-जो अभिलाषा होगी वह सब पूर्ण हो। जायेगी’। मुनि के ऐसा कहने पर राजा कुशिक ने मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न होकर उन मुनिश्रेष्ठ से यह अर्थ युक्त वचन कहा- भगवन। महाभाग। आपने हम लोगों को पवित्र कर दिया। हमारे मन में तनिक भी खेद या रोष नहीं है। हम दोनों की तरूण अवस्था हो गयी तथा हमारा शरीर सुन्दर और बलवान हो गया।‘आपने पत्‍नी सहित मेरे शरीर पर चाबुक मार-मार कर जो घाव कर दिये थे, उन्हें भी अब मैं अपने अंगों में नहीं देख रहा हूं। मैं पत्‍नी सहित पूर्ण स्वस्थ हूं। ‘मैं अपनी इन महारानी को परम उत्तम कांति से युक्त तथा अप्सरा के समान मनोहर देख रहा हूं। ये पहले मुझे जैसी दिखाई देती थीं वैसी ही हो गयी हैं। ‘महामुने। यह सब आपके कृपा प्रसाद से सम्भव हुआ है। भगवन। आप सत्य पराक्रमी हैं। आप- जैसे तपस्वियों में ऐसी शक्ति का होना आश्‍चर्य की बात नहीं है । उनके ऐसा कहने पर मुनिवर च्यवन पुनः राजा कुशिक से बोले- नरेश्‍वर। तुम पुनः अपनी पत्‍नी के साथ कल यहां आना। महर्षि की यह आज्ञा पाकर राजर्षि कुशिक उन्हें प्रणाम करके विदा ले देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी शरीर से युक्त हो अपने नगर की ओर चल दिये। तदनन्तर उनके पीछे-पीछे मंत्री, पुरोहित, सेनापति, नर्तकियां तथा समस्त प्रजावर्ग के लोग चले । उनसे घिरे हुए राजा कुशिक उत्कृष्ट तेज से प्रकाशित हो रहे थे। उन्होंने बड़े हर्ष के साथ नगर में प्रवेश किया। उस समय वन्दीजन उनके गुण गा रहे थे। नगर प्रवेश करके उन्होंने पूर्वान्हकाल की सम्पूर्ण क्रियाएं सम्पन्न कीं। फिर पत्‍नी सहित भोजन करके उन महातेजस्वी नरेश ने रात को महल में निवास किया। वे दोनों पति-पत्‍नी नीरोग देवताओं के समान दिखाई देते थे। वे एक-दूसरे के शरीर में नयी जवानी का प्रवेश हुआ देखकर शैय्या पर सोये-सोये बड़े आनन्द का अनुभव करने लगे। द्विजश्रेष्ठ च्यवन की दी हुई उत्तम सेवा से सम्पन्न नूतन शरीर धारण किये वे दोनों दम्पति बहुत प्रसन्न थे। इधर भृगृकुल की कीर्ति बढाने वाले, तपस्या के धनी महर्षि च्यवन ने गंगा तट के तपोवन को अपने संकल्प द्वारा नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित करके समृद्विशाली एवं नयनाभिराम बना दिया। वैसा कमनीय कानन इन्द्रपुरी अमरावती में भी नहीं था।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें च्‍यवन और कुशिका का संवादविषयक तिरपनवॉं अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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