महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 53 श्लोक 57-70

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त्रिपञ्चाशत्तम (53) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रिपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 57-70 का हिन्दी अनुवाद

‘बेटा। इस समय तुम अपने नगर में जाओ और अपनी थकावट दूर करके कल सबेरे अपनी पत्‍नी के साथ फिर यहां आना। नरेश्‍वर। कल पत्‍नी सहित तुम मुझे यहीं देखोगे। ‘तुम्हें अपने मन में खेद नहीं करना चाहिये अब तुम्हारे कल्याण का समय उपस्थित हुआ है। तुम्हारे मन में जो-जो अभिलाषा होगी वह सब पूर्ण हो। जायेगी’। मुनि के ऐसा कहने पर राजा कुशिक ने मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न होकर उन मुनिश्रेष्ठ से यह अर्थ युक्त वचन कहा- भगवन। महाभाग। आपने हम लोगों को पवित्र कर दिया। हमारे मन में तनिक भी खेद या रोष नहीं है। हम दोनों की तरूण अवस्था हो गयी तथा हमारा शरीर सुन्दर और बलवान हो गया।‘आपने पत्‍नी सहित मेरे शरीर पर चाबुक मार-मार कर जो घाव कर दिये थे, उन्हें भी अब मैं अपने अंगों में नहीं देख रहा हूं। मैं पत्‍नी सहित पूर्ण स्वस्थ हूं। ‘मैं अपनी इन महारानी को परम उत्तम कांति से युक्त तथा अप्सरा के समान मनोहर देख रहा हूं। ये पहले मुझे जैसी दिखाई देती थीं वैसी ही हो गयी हैं। ‘महामुने। यह सब आपके कृपा प्रसाद से सम्भव हुआ है। भगवन। आप सत्य पराक्रमी हैं। आप- जैसे तपस्वियों में ऐसी शक्ति का होना आश्‍चर्य की बात नहीं है । उनके ऐसा कहने पर मुनिवर च्यवन पुनः राजा कुशिक से बोले- नरेश्‍वर। तुम पुनः अपनी पत्‍नी के साथ कल यहां आना। महर्षि की यह आज्ञा पाकर राजर्षि कुशिक उन्हें प्रणाम करके विदा ले देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी शरीर से युक्त हो अपने नगर की ओर चल दिये। तदनन्तर उनके पीछे-पीछे मंत्री, पुरोहित, सेनापति, नर्तकियां तथा समस्त प्रजावर्ग के लोग चले । उनसे घिरे हुए राजा कुशिक उत्कृष्ट तेज से प्रकाशित हो रहे थे। उन्होंने बड़े हर्ष के साथ नगर में प्रवेश किया। उस समय वन्दीजन उनके गुण गा रहे थे। नगर प्रवेश करके उन्होंने पूर्वान्हकाल की सम्पूर्ण क्रियाएं सम्पन्न कीं। फिर पत्‍नी सहित भोजन करके उन महातेजस्वी नरेश ने रात को महल में निवास किया। वे दोनों पति-पत्‍नी नीरोग देवताओं के समान दिखाई देते थे। वे एक-दूसरे के शरीर में नयी जवानी का प्रवेश हुआ देखकर शैय्या पर सोये-सोये बड़े आनन्द का अनुभव करने लगे। द्विजश्रेष्ठ च्यवन की दी हुई उत्तम सेवा से सम्पन्न नूतन शरीर धारण किये वे दोनों दम्पति बहुत प्रसन्न थे। इधर भृगृकुल की कीर्ति बढाने वाले, तपस्या के धनी महर्षि च्यवन ने गंगा तट के तपोवन को अपने संकल्प द्वारा नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित करके समृद्विशाली एवं नयनाभिराम बना दिया। वैसा कमनीय कानन इन्द्रपुरी अमरावती में भी नहीं था।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें च्‍यवन और कुशिका का संवादविषयक तिरपनवॉं अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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